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खण्ड-४, गाथा-१
सत्ताभ्युपगमप्रसंगतो नित्यत्वापत्तेः। न चात्मनो ज्ञानाच्चान्तरभूता एव सुखादयोऽनुग्रहादिविधायिनो भवेयुः, इतरथा योगिनोऽपि ते तथा स्युः। न च तेषां तत्राऽसमवायान्नायं दोषः, समवायस्य निषिद्धत्वात्। तन्न सुखादिग्रहणे मनइन्द्रियसिद्धिः। अत एव च ‘आत्मा मनसा युज्यते तत्र च समवेताः सुखादयः' (पृ०६६-पं०६) इत्यादिप्रक्रियाऽनुपपन्नैव। ___ न च निरंशयोरात्ममनसोः संयोग: संभवी, एकदेशेन तत्संयोगे सांशत्वप्रसक्तेः, सर्वात्मना संयोगे 5 उभयोरेकत्वप्राप्तेः। यदि च यत्र मन: संयुक्तं तत्र समवेतं ज्ञानं समुत्पादयति तदा सर्वात्मनां व्यापितया समानदेशत्वेन मनसस्तैः संयुक्तत्वात् सर्वात्मसमवेतसुखादिषु तदेवैकं ज्ञानमुत्पादयतीति प्रतिप्राणि करना भी अनुचित है, क्योंकि संवेदन के पूर्व या उत्तरक्षण में वस्तु का अज्ञात भी अस्तित्व मान लेने पर शब्द में नित्यत्व के स्वीकार की विपत्ति हो जायेगी, क्योंकि जिस काल में शब्द का संवेदन होता है उस के पूर्व और उत्तरकाल में सुखादि की भाँति शब्द की सत्ता का भी स्वीकार बाधमुक्त 10 है। तात्पर्य, सुखादि स्वयं ही प्रकाशरूप होने से ज्ञानमय ही है (- अनुकूल संवेदन का ही दूसरा नाम सुख है।) और ज्ञान या सुखादि भी आत्मद्रव्य के पर्यायस्वरूप होने से आत्मरूप ही है, आत्मा से भिन्न नहीं है। आत्माभिन्न ही सुखादि अनुग्रहादि के कारक होते हैं। यदि अनुग्रहादिकारक सुखादि को आत्मा से सर्वथा भिन्न मानेंगे तो अन्य जीवों के सुखादि से योगी आत्मा को भी अनुग्रहादि होने की आपत्ति आयेगी क्योंकि सखादि जैसे योगी से भिन्न है वैसे अन्य जीवों से भी भिन्न है। 15 “अन्य जीवों में सुखादि का समवाय होता है, योगियों में नहीं होता अतः योगियों को अनुग्रहादि की आपत्ति नहीं होगी।” – ऐसा कहना निर्मूल है, क्योंकि पहले कई बार समवाय का निरसन हो चुका है। निष्कर्ष :- सुखादिग्रहण के आधार पर मन-इन्द्रिय की सिद्धि असंभव है। फलतः नैयायिकों की यह पूर्वोक्त कल्पित प्रक्रिया (पृ०६६-६०२७) 'सुखादि का समवाय आत्मा में, आत्मा से संयुक्त मन, संयुक्त समवाय संनिकर्ष से सुखादि का अनुभव' - भी निरस्त हो जाती है क्योंकि समवाय निरस्त 20 है और सुखादि स्वसंवेदि है।
* आत्मा और मन का संयोग अनेकापत्तिग्रस्त * यह भी जान के रखो कि आत्मा और मन दोनों ही निरंश है - निरवयव हैं, सावयव हो उन का ही संयोग हो सकता है, आत्मा एवं मन का किसी एक अंश से संयोग मानेंगे तो उन दोनों में सावयवत्व प्रसक्त होगा, यदि समूचे द्रव्य-द्रव्य का संयोग मानेंगे तो उन दोनों में एकत्व 25 प्रसक्त होगा क्योंकि स्व में स्व का ही समुच्चयरूप से संयोग घट सकता है।
दूसरी विचारणीय बात है कि प्रत्येक आत्माओं के भिन्न भिन्न मन की कल्पना निरर्थक ठहरेगी। वह इस प्रकार :- मन जहाँ संयुक्त होता है वहाँ समवाय संबंध से ज्ञान को जन्म देता है यह आप का ही सिद्धान्त है। अब देखिये - प्रत्येक आत्मा सर्वव्यापी है एवं समान देश में सर्व आत्मा अवस्थित हैं अतः मन का संयोग एक आत्मा से होगा तो सर्व आत्माओं के साथ भी होना अनिवार्य 30 है। इस स्थिति में प्रत्येक जीवों में समवेत सुख-दुःखादि का एक ही ज्ञान सभी जीवात्माओं में जन्म पायेगा, फिर अलग अलग आत्मा के लिये पृथक् पृथक् मन की कल्पना क्यों की जाय ?
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