SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 15 खण्ड-४, गाथा-१ ५५ करणत्वम् एतानि परस्परविरुद्धानि कथमेकत्र सम्भवन्ति ? अथापरापरनिमित्तभेदादेकत्र कर्तृ-कर्म-करणरूपताया अविरोधः। ननु तान्यपि निमित्तानि किं सकलकारकेभ्यो व्यतिरिक्तानि उताऽव्यतिरिक्तानीति वाच्यम् । यद्यव्यतिरिक्तानीति पक्षः तदा तदभेदे तेषामप्यभेदः तेषां वा भेदे कारकस्यापि भेदः अन्यथाऽव्यतिरेकाऽसिद्धेः। अथ व्यतिरिक्तानि तदा सम्बन्धाऽसिद्धिः । न च समवायलक्षणः सम्बन्धः, तस्य निषिद्धत्वात् निषेत्स्यमानत्वाच्च। न च एकान्तभेदे विशेषण-विशेष्यभावादिकोऽपि सम्बन्धः कश्चित् संभवति, तत्रापि सम्ब- 5 न्धान्तरकल्पनातोऽनवस्थाप्रसक्तेः । न च तस्य सम्बन्धरूपत्वात् सम्बन्धान्तरमन्तरेणापि सम्बद्धत्वान्नानवस्था, करणत्व तीनों का समावेश विरुद्ध है। कैसे यह सुनिये - कर्ता उसे कहते हैं जो ज्ञान एवं चिकीर्षा (कार्य करने की इच्छा) का आधार हो। अथवा कर्त्ता वह है जो स्वतन्त्र हो । अर्थात् अन्य कारकों से स्वयं प्रेरित न होता हुआ स्वयं ही अन्य कारकों को कार्यान्वित करनेवाला हो। कर्म उस को कहते हैं - कर्ता के प्रयत्न से जो जन्म पावे, या विकृत (रूपान्तरित) होवे या जो प्राप्त हो। (निवर्त्य 10 = घट बनाता है, विकार्य = चावल पकाता है, प्राप्य = गाँव जा रहा है।) करण उस को कहते हैं जो प्रधान क्रिया का आधार न हो। (उदा. कुठार से काष्ठ में छेदन क्रिया होती है वह प्रधान क्रिया है, उस का आश्रय काष्ठ है न कि कुठार ।) यहाँ स्पष्ट है कि कर्तृत्व-कर्मत्व और करणत्व परस्पर विरुद्ध हैं वह एक ही कारकसमुदाय में कैसे समाविष्ट रहेंगे ? * कर्ता-कर्म-करण में एकान्त भेदाभेद दुर्धट * प्रश्न :- जैसे अग्रभाग एवं पृष्ठ भाग रूप निमित्तों के भेद से एक ही मुहर में परस्पर विरुद्ध राजाछाप-रानीछाप दोनों का समावेश माना जाता है ऐसे ही स्वातन्त्र्य आदि पृथक् पृथक् निमित्तों के भेद से एक ही कारकसमुदाय कर्ता-कर्म-करण मानने में क्या बाध है ? उत्तर :- एकान्त भेद या एकान्त अभेद पक्ष में बाध ही है। कहिये - वे निमित्त उन सकल कारकों से भिन्न है या अभिन्न ? यदि अभिन्न कहेंगे तो निमित्तों के अन्योन्य अभेद से कारकों 20 में भी अभेद प्रसक्त होने से साकल्य किन का कहेंगे ? यदि उन निमित्तों को अन्योन्य भिन्न मानेंगे तो कारक भी भिन्न भिन्न होने से, एक समुदाय जैसा कुछ भी न रहा, तब कर्ता आदि तीनों का एक में समावेश कहाँ होगा ? निमित्तों के अन्योन्य भेद होने पर भी कारकों का भेद नहीं मानेंगे तो निमित्त एवं कारकों का अव्यतिरेक = अभेद पक्ष असत् बन कर रहेगा। यदि प्रथम पक्ष में, कारकों एव निमित्तों का भेद मानेंगे तो निमित्तों का कारकों के साथ कोई सम्बन्ध न रहने से कर्ता 25 आदि कुछ नहीं बनेगा। समवाय सम्बन्ध को मान कर भी समाधान नहीं बनेगा। क्योंकि पहले उस का खंडन हो चुका है, आगे भी किया जायेगा। एकान्त भेद पक्ष में तो विशेषण-विशेष्य भाव भी कहीं नहीं घटता, क्योंकि विशेषण-विशेष्य भाव के लिये भी और एक सम्बन्ध की कल्पना करनी ही पडेगी, उस सम्बन्ध के सम्बन्ध की कल्पना भी करनी ही पडेगी, इस तरह अन्य अन्य सम्बन्ध की कल्पना का अन्त नहीं होगा। यदि कहें 30 कि - ‘प्रथम कल्पित सम्बन्ध ही अन्य सम्बन्ध के विना भी अपना सम्बन्ध स्वयं कर लेगा - अतः नयी नयी कल्पना नहीं करनी पडेगी' - यह भी गलत है, क्योंकि एकान्तभेद पक्ष में जो एक व्यक्ति के सम्बन्धरूप में काम करता है वह अन्य व्यक्ति के (या अपने) सम्बन्ध के रूप में काम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy