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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ “विवक्षातः कारकाणि भवन्ति” [ ] इति न्यायात् साधकतमत्वं विवक्षात इति वक्तव्यम् पुरुषेच्छानिबन्धनत्वेन वस्तुव्यवस्थितेरयोगात् । अथ कर्म-कर्तृविलक्षणस्याऽव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टोपलब्धिजनकस्य प्रमाणत्वान्न यथोक्तदोषानुषङ्गः। असदेतत् अनेकसन्निधानात् कार्यस्य स्वरूपलाभे एकस्य तदुत्पत्तौ वैलक्षण्याभावे साधकतमत्वानुपपत्तेः। तन्न कर्मकर्तृवैलक्षण्यमपि साधकतमत्वम् । ___अत्र चानेकपक्षानुद्भाव्य उद्द्योतकराध्ययनप्रभृतिभिः साधकतमत्वं निरस्तम् ते च पक्षा ग्रन्थगौरवभयान्नेह प्रदर्श्यन्ते।
“सन्निपत्यजनकत्वे पूर्वोदितदोषाभावः। तथाहि- अनेकसंनिधौ कार्यनिष्पत्तेः साधकतमत्वानुपपत्तिः, तस्मिंस्तु सति यदा नियमेन कार्यमुपजायते तदा कथं न तस्य साधकतमत्वोपपत्तिः ?" - असदेतत्,
साधकतम माना जाय यह तो दृष्टा की इच्छा पर निर्भर है, क्योंकि शब्दशास्त्रीयोंने ही कहा है कि 10 ‘वक्ता की इच्छा से कर्तृ-करणादि कारक व्यवस्था होती है।' इस न्यायोक्ति से सिद्ध है कि अमुक ही कारक को साधकतम माना जायेगा जो प्रमाण कहा जायेगा।
समाधान :- ऐसा कथन गलत है, क्योंकि इस में तो वक्ता पुरुषों की इच्छा का महत्त्व रहा, कोई पुरुष की इच्छा किसी एक कारक को साधकतम मानने की होगी तो अन्य पुरुष की अन्य
कारक को साधकतम मानने की इच्छा होगी - ऐसी स्थिति में कोई स्पष्ट निःशंक प्रमाणादिवस्तुव्यवस्था 15 शक्य नहीं रहेगी।
शंका :- जो कारक अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्ट हो कर उपलब्धि का जनक हो, किन्तु कर्म एवं कर्ता से भिन्न हो ऐसे एक (करणनाम) कारक को साधकतम यानी प्रमाण मान लेंगे। अब सभी को प्रमाण मानने की अव्यवस्था का दोष नहीं होगा।
समाधान :- यह कथन गलत है क्योंकि जब सभी कारक मिल कर ही कार्य को जन्म देते 20 हैं तब किसी एक कारक में कर्म से या कर्त्ता से भिन्नता का अभ्युपगम ही शक्य नहीं है, विवक्षा
होने पर उस को भी कर्म या कर्ता बना सकते हैं। फलतः किसी भी प्रकार से साधकतमत्व की संगति न होने से उपरोक्त प्रमाण का लक्षण भी संगत नहीं हो सकता।
_ 'अर्थोपलब्धि में जो साधकतम हो वह प्रमाण है' ऐसी व्याख्या के प्रति उद्द्योतकर-अध्ययन आदि विद्वानों ने अनेकधा पक्ष प्रतिपक्ष कर के 'साधकतमत्व' पदार्थ का निरसन किया है। (देखिये-न्यायसूत्र 25 प्रथमसूत्र की भूमिका में न्यायवार्त्तिक)। उन पक्ष-प्रतिपक्षों को ग्रन्थ विस्तार के भय से यहाँ सन्मतिवृत्तिकार प्रदर्शित नहीं कर रहे हैं।
* सन्निपत्यजनकत्व साधकतमत्व नहीं हो सकता * कोई वादी कहता है - 'सन्निपत्यजनकत्व को साधकतमत्व माना जाय तो उपरोक्त अव्यवस्था आदि दोष की संभावना नहीं रहती। सन्निपत्यजनकत्व का अर्थ है - जिस के निकटतम उपस्थित 30 होने पर ही कार्य निष्पन्न हो। देखिये- जब अनेक कारणों के संनिधान से कार्य की उत्पत्ति मानते
हैं तब तो किस को साधकतम कहा जाय – यह समस्या होने से किसी भी कारण में साधकतमत्व का मैल नहीं बैठेगा। दूसरी ओर शेष कारणों के रहते हुए भी कोई एक ऐसा कारण होता है जो
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