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खण्ड - ४, गाथा - १
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प्रामाण्यं युक्तं मरिचिकास्वलक्षणग्रहणे जलाध्यवसायिन इव, यतो 'यदेव मया तत्त्वतो दृष्टं तदेव प्राप्तम्' इत्यध्यवसाये तस्य प्रामाण्यं व्यवस्थाप्यते । न च दृष्टस्य क्षणिकसन्तानिस्वरूपेण सन्तानस्य प्राप्तिः इति प्राक् ( पृ० ४६ - पं० ३) प्रतिपादितम्, स्वरूपेण तु तस्याऽसत्त्वात् प्राप्त्यविषयतैवेति न धर्मोत्तरमतपर्यालोचनया किञ्चित् परमार्थतः प्रदर्शितार्थप्रापकं प्रमाणं सम्भवति अतः संवादकत्वमपि तन्मतेन प्रमाणलक्षणमयुक्तम् । नैयायिकमतेन प्रमाणलक्षणनिरूपणम्
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नैयायिकास्तु “ अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनिका सामग्री प्रमाणम्” [ ] इति प्रमाणसामान्यलक्षणं प्रतिपन्नाः तज्जनकत्वं च प्रामाण्यमिति च । अथ सामग्र्याः प्रमाणत्वे साधकतमत्वमनुपपन्नम् सामग्री ह्यनेककारकस्वभावा तस्य चानेककारकसमुदाये कस्य स्वरूपेणातिशयो वक्तुं शक्येत ? तथाहिसर्वस्मात् कारणकलापात् कार्यमुपजायमानमुपलभ्यते तदन्यतमापायेऽप्यनुपजायमानं कस्य कार्योत्पादने साधकतमत्वमावेदयतु ? न च समस्तसामग्र्याः साधकतमत्वम् अपरस्याऽसाधकतमस्याभावे तदपेक्षया 10 साधकतमत्वस्यानुपपत्तेः असाधकतममपेक्ष्य साधकतमत्वव्यवस्थितेः । न च अनेककारकजन्यत्वेऽपि कार्यस्य का प्रामाण्य नहीं होता । प्रामाण्य की स्थापना तो 'जो मैंने देखा उसी को वास्तव में मैने प्राप्त कर लिया' ऐसे अध्यवसाय में ही करना उचित है। क्षणिक सन्तानिस्वरूप से दृष्ट हो कर सन्तान प्राप्त होता हो ऐसा भी घटता नहीं यह पूर्व में ( पृ० ४६ - पं० १६) दूसरे विकल्प की चर्चा में कह आये हैं, एवं स्वरूपसत् रूप से भी संतान प्राप्तिविषय नहीं है यह भी पहले ( पृ० ४६ - पं० १२ ) कहा है । निष्कर्ष, 15 न्यायबिन्दुटीकाकार धर्मोत्तर द्वारा प्रस्तुत विमर्श के अनुसार भी वास्तविकरूप से प्रदर्शितार्थ का प्रापक हो वह प्रमाण है' ऐसा लक्षण सम्भव नहीं है, अत एव प्रदर्शितार्थप्रापकत्वरूप संवादकत्व भी उस के मतानुसार प्रमाण का लक्षण घट नहीं सकता ।
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** नैयायिक मतानुसार सामग्री में प्रामाण्य दुर्घट
नैयायिकवादी कहते हैं अव्यभिचार असंदिग्ध बोधाबोधरूपता आदि विशेषणों से विशिष्ट ऐसी 20 अर्थोपलब्धिकारक सामग्री प्रमाण है । प्रमाणमात्र का ऐसा लक्षण न्यायदर्शन में स्वीकृत है । एवं तथाविधउपलब्धिजनकत्व ही प्रामाण्य माना गया है। ऐसा लक्षण भी संगत नहीं हो सकता, क्योंकि प्रमाण का अर्थ है जो प्रमा के उद्भव में साधकतम हो, वह साधकतमत्व सामग्री में दुर्घट है । सामग्री में तो अनेक कारक शामिल रहते हैं, अनेक कारकों के समुदाय में कौन किस से स्वरूपतः बढिया ( = सातिशय) है यह कैसे कहा जा सकता है ? कार्य किसी एक कारक से नहीं, सभी कारकों 25 के संमिलन से उत्पन्न होता हुआ दिखाई देता । उन में से किसी भी एक के विरह में कार्य उत्पन्न नहीं होता, तब कार्योत्पत्ति में कौन साधकतम है यह कौन बोलेगा ? सम्पूर्ण सामग्री को, यानी हर एक कारक को साधकतम कहना गलत है, क्योंकि जब सभी कारक साधकतम ही माना जायेगा तो असाधकतम कोई बचता ही नहीं फिर किस का व्यवच्छेद कर के किस को साधकतम कहेंगे ? कोई कारक असाधकतम हो तभी उस की अपेक्षा अन्य कारक को साधकतम कह सकते हैं अन्यथा नहीं। 30 * विवक्षानुसार साधकतमत्व की उपपत्ति अशक्य
शंका :- कार्य यद्यपि अनेककारकजन्य होता है, फिर भी उन कारकों में किस को करण या
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