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खण्ड - ४, गाथा - १
कथं प्रापकत्वाभावेऽपि प्रदर्शकत्वस्य सम्भवेन दोषापादनं क्रियते ? तथा च तृतीयविषयाभावमवगत्यैवोक्तम् 'अर्थानर्थविवेचनस्यानुमानायत्तत्वात् ' [ ] तथा 'हिताहितप्राप्ति - परिहारयोः ' [ ] इति च । तृतीयविषयाभावश्च सर्वस्य वस्तुनो राशिद्वयेऽन्तर्भावात् । तथाहि - तृतीयं वस्तु नेष्टसाधनम् उपेक्षणीयत्वात् यच्च तत्साधनं न भवति तस्यानिष्टसाधनराशावन्तर्भावः । ” एतच्चायुक्तम् स्वसंविदितवस्त्वपह्नवस्य युक्तिशतेनापि कर्तुमशक्यत्वात् । तथाहि - यथा तद् वस्तु इष्टसाधनं न भवति तथाऽनिष्टसाधनमपि न भवति; 5 इष्टानिष्टसाधनयोर्यत्नोपादेयत्वहे यत्वदर्शनात् उपेक्षणीयस्य चायत्नसाध्योपादानत्यागविषयत्वात् कथमिष्टानिष्टसाधनयोरन्तर्भावः ? तद् न प्रदर्शकत्वमेव प्रापकत्वम् ।
न च बौद्धाभ्युपगमेन प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं क्वचिदपि ज्ञाने संभवति । तद्धि सन्तानाश्रयेण सौगतैः से पृथक् तीसरा कोई प्रकार ( उपेक्षणीय जैसा) है नहीं । अत एव तृतीय प्रकार का प्रदर्शक कोई ज्ञान भी नहीं है। इस का फलितार्थ यही हुआ कि प्रदर्शक हो लेकिन प्रापक न हो ऐसा कोई ज्ञान ही 10 नहीं है। तब प्रापकत्व न होने पर भी प्रदर्शकत्व का संभव दिखा कर प्रापकत्वरूप प्रामाण्य के लक्षण में आपने दोषप्रदर्शन कैसे कर दिया ? तृतीय प्रकार के नास्तित्व को अवगत कर के ही यह कहा गया है 'अर्थ या अनर्थ का ( इष्ट या अनिष्ट का) विवेक ज्ञान अनुमानाधीन है।' तथा 'हित की प्राप्ति एवं अहित से निवृत्ति' इत्यादि कहा गया है तृतीय प्रकार होता तो यहाँ इष्ट / अनिष्ट एवं हित / अहित के द्वन्द्व के साथ उस का भी उल्लेख अवश्य होता । सच तो यह है कि सभी पदार्थों 15 का उक्त दो राशि (इष्ट / अनिष्ट या हित / अहित ) में ही समावेश है, इसी लिये तृतीय प्रकार की सम्भाव फिजुल है । देखिये- आप का मान्य उपेक्षणीय (तृतीय पदार्थ) इष्टसाधक तो नहीं है, दुनिया की यही चाल है कि जो इष्टसाधक नहीं होता उस का अन्तर्भाव अनिष्टसाधक पदार्थराशि में ही कर लिया जाता है।
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* तृतीय अर्थप्रकार उपेक्षणीय का समर्थन
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समाधान :- ऐसी शंका अयुक्त है । इष्ट-अनिष्ट से भिन्न उपेक्षणीयस्वरूप तृतीय प्रकार, सभी को प्रायः स्वसंवेदन ( जात अनुभव) से ही सिद्ध है, जो अनुभवसिद्ध है उस का अपलाप सैंकडों तर्क करने से भी शक्य नहीं है। देखिये- आपने जो अन्त में कहा कि जो इष्टसाधक नहीं होता उस का अनिष्टसाधक में अन्तर्भाव होता है यह गलत है, क्योंकि जैसे वह इष्टसाधक नहीं है वैसे ही वह (गगनादि) अनिष्ट साधक यानी हानिकारक भी नहीं है। समझो कि कोई चीज इष्ट है तो पुरुष 25 उस के लिये प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करता है । कोई चीज अनिष्ट होती है तब पुरुष प्रयत्नपूर्वक उस से दूर भागता है। किन्तु गगनादि तृतीय प्रकार के पदार्थ ऐसे हैं जो इष्ट भी नहीं, अनिष्ट भी नहीं, अत एव उस की प्राप्ति या परिहार के लिये कोई प्रयत्न भी नहीं होता । तब कैसे उपेक्षणीय ( गगनादि) का इष्ट-अनिष्ट युगल में अन्तर्भाव शक्य है ? निष्कर्ष यह हुआ कि प्रापकत्व के विना भी प्रदर्शकत्व सम्भव है, प्रापकत्व और प्रदर्शकत्व एक चीज नहीं है।
* बौद्धमत में प्रदर्शितार्थप्रापकत्व की अनुपपत्ति
सम्यग् विचार करने पर लगता है कि किसी भी ज्ञान में बौद्धमतानुसार प्रदर्शितार्थप्रापकत्व की
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