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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ प्रामाण्यं द्वयोरेव। प्रापणशक्तिश्च प्रमाणस्याविनाभावनिमित्ता दर्शनपृष्ठभाविना विकल्पेन निश्चीयते। तथाहि-दर्शनं यतोऽर्थादुत्पन्नं तदर्शकमात्मानं स्वानुरूपावसायोत्पादनात् निश्चिन्वदर्थाविनाभावित्वं प्रापणशक्तिनिमित्तं प्रामाण्यं स्वतो निश्चिनोतीत्युच्यते न पुनर्ज्ञानान्तरं तन्निश्चायकमपेक्षतेऽर्थानुभूताविव । ततोऽविसंवादकत्वमेव प्रमाणलक्षणं युक्तम् ।
बौद्धमतप्रदर्शितप्रमाणलक्षणनिरसनम् ॥ एतदप्ययुक्तम्, यतो नार्थप्रदर्शकत्वमेव प्रापकत्वम् पुरुषेच्छाधीनप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् सति वस्तुन्यर्थप्राप्तेः । एतच्च प्राक् (पृ.३७-५०१०) प्रतिपादितम्। उपेक्षणीये च विषये पुरुषस्य तद्विषयार्थित्वाद्यभावे प्राप्तिपरित्यागयोरभावेऽपि तत्प्रदर्शकत्वलक्षणस्य प्रामाण्यस्य न कश्चिद् व्याघात उपलभ्यते।
अथ “इष्टानिष्टसाधनार्थव्यतिरेकेणोपेक्षणीयस्यार्थान्तरस्याभावान्न तत्प्रदर्शकं किञ्चिज् ज्ञानं समस्तीति 10 के अनन्तर होने वाले विकल्प से होता है। देखिये -
* बौद्धमत में स्वतःप्रामाण्यनिश्चय की व्याख्या * प्रत्यक्षात्मक दर्शन (जिस को निर्विकल्प प्रत्यक्ष कहा जाता है) जिस अर्थ से उत्पन्न होता है उस अर्थ के प्रदर्शक के रूप में अपने को निरूपित करने वाले सदृश व्यवसाय (सविकल्प) ज्ञानरूप
निश्चय को जन्म देता है। जिस अर्थ को दर्शन प्रदर्शित करता है वही उस का प्राप्य (यानी प्रदी) 15 है, स्वयं उस का प्रदर्शक यानी प्रापक है। इस प्रकार की प्रापणशक्ति जो कि अर्थाविनाभावितारूप
ही है या तो अर्थाविनाभावमूलक है, उस का भी अपने आप ही स्वानुरूपव्यवसाय के उत्पादन से निश्चय हो जाता है। इसी को स्वतः प्रामाण्यनिश्चय कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि जैसे अर्थानुभूतिरूप ज्ञान का ग्रहण स्वतः नहीं किन्तु व्यवसायरूप ज्ञानान्तर से होता है वैसा प्रामाण्यबोध के बारे में
नहीं है। प्रामाण्यबोध तो उपरोक्त ढंग से स्वतः होता है। 20 बौद्धवादियों के इस पूरे कथन का निष्कर्ष यह है कि 'अविसंवादकत्व' यही प्रमाण का लक्षण युक्तिसंगत है।
* प्रदर्शकत्व प्रापकत्वरूप नहीं है - बौद्धमतप्रतिषेध * बौद्धवादियों का यह कथन अयुक्त है। 'अर्थप्रदर्शकत्व' को ही प्रापकत्व कहना गलत है। वस्तु सत् होने पर भी उस अर्थ की प्राप्ति सिर्फ अर्थप्रदर्शनमात्र से नहीं होती किन्तु उस की प्राप्ति की 25 यदि पुरुष को इच्छा हो तब वह उस के लिये प्रवृत्ति करेगा तभी अर्थप्राप्ति होगी - यह पहले
कहा जा चुका है (पृ.३८-पं०१७)। दूरवर्ती वृक्ष का या आकाश का या तो दूरवर्ती पर्वत का - इत्यादि विषयों का दर्शन होने पर भी वे विषय उपेक्षापात्र होने से उन की प्राप्ति की इच्छा नहीं होती है, न तो उन से भागने की इच्छा होती है। ऐसे स्थलों में पुरुष को कोई इच्छा न होने
से न तो प्राप्ति होती है न परित्याग। फिर भी यहाँ अर्थप्रदर्शकत्वरूप प्रामाण्य अक्षुण्ण है, उस में 30 कोई बाधा नहीं है।
* उपेक्षणीय-यह अर्थ का तीसरा प्रकार नहीं है - शंका * शंका :- अर्थ के दो ही प्रकार होते हैं इष्ट का साधक और अनिष्ट का साधक। इन दोनों
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