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खण्ड-४, गाथा-१
४३ तानि प्रदर्शितमर्थं प्रापयन्ति, यद्देशकालाकारं वस्तु तैः प्रदर्शितम् न तत् तथा प्राप्यते यच्च यथा प्राप्यते न तैस्तत् तथा प्रदर्शितम्, देशादिभेदेन वस्तुभेदस्य निश्चितत्वात न तेषां प्रदर्शितार्थप्रापकता। एवमपि प्रदर्शितार्थप्रापकत्वे जलादिप्रदर्शकस्य मरिच्यादिवस्त्वन्तरप्राप्तौ प्रदर्शितप्रापकत्वेन प्रामाण्यप्रसक्तिरिति न किञ्चिदप्रमाणं भवेत्।
___ प्रमाणद्वयव्यतिरिक्तं च ज्ञानं न नियतप्रदर्शितार्थप्रापकम् । तेन हि भावाभावसाधारणोऽनियतोऽर्थः 5 प्रदर्शितः, स च तथाभूतोऽसत्त्वान्न प्राप्तुं शक्यः इति न तत् प्रदर्शितार्थप्रापकत्वेन प्रमाणम् । अनियतार्थप्रदर्शकत्वं च शाब्दादेः साक्षात् पारम्पर्येण वा प्रतिपाद्यादर्थादनुत्पत्तेः। तत् स्थितं प्रापणशक्तिस्वभावमविसंवादकत्वं मतलब कि जिस प्रकार का (पीत) प्रदर्शन है उस प्रकार की प्राप्ति नहीं है। अत एव उस में 'प्रदर्शित प्रापकत्व' लक्षण की अतिव्याप्ति संभव नहीं। पीतशंखादिग्राहक ज्ञान प्रदर्शित अर्थ के प्रापक नहीं है। जिस प्रकार के नियतदेश या नियतकाल या नियताकार (पीतादि) से सम्बद्ध वस्तु उन से प्रदर्शित 10 है उसी प्रकार की वस्तु उन से प्राप्त नहीं होती। देश-कालादि भेद वस्तुभेद का साधक है यह सुनिश्चित तथ्य है। श्वेताकार शंख एवं प्रदर्शित पीताकार शंख दोनों आकारभेद के कारण भिन्न है। अत एव प्रदर्शित पीताकार शंख का प्रापक वह अध्यवसाय ज्ञान नहीं हो सकता।।
यदि अध्यवसाय से पीतशंख प्राप्त न होने पर भी श्वेत शंख (आखिर शंख) प्राप्त होता है इतने मात्र से उस को प्रदर्शितअर्थ प्रापक कह दिया जाय, यानी प्रमाण कहा जाय, तो किसी भी 15 ज्ञान को अप्रमाण करार देना असंभव ही हो जायेगा; क्योंकि मृगजल की घटना में जलादिवस्तु का प्रदर्शन करने वाला ज्ञान होने पर जब किरणादिअन्यवस्तु प्राप्त होगी तब भी यथाकथंचिद् प्रदर्शितप्रापकता (प्रदर्शित चकचकायमान अर्थ प्रापकता) यहाँ भी अक्षुण्ण है ऐसा मान लेंगे।
* प्रत्यक्ष/अनुमान से अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं * प्रत्यक्ष एवं अनुमान के सिवा जो कोई शाब्दबोधादि ज्ञान माना जाता है वह प्रत्यक्ष या अनुमान 20 की भाँति नियत देश-काल-आकारवाले प्रदर्शित अर्थ के प्रापक नहीं है। शाब्दबोधादि ज्ञान कभी अगोव्यावृत्तिस्वरूप अभाव (तुच्छ) अर्थ का, या तो कल्पित भावस्वरूप अर्थ का - इस प्रकार अनियत अर्थ का प्रदर्शन करते हैं। अभाव या कल्पित भाव स्वरूप अर्थ वास्तविक नहीं होता, असत् होता है। असत् होने के नाते उस की प्राप्ति अशक्य है। मतलब, शाब्दबोधादि ज्ञान प्रर्शितार्थप्रापक न होने से प्रमाणभूत नहीं हो सकता। शाब्दबोधादि को अनियतार्थप्रदर्शक बताया गया है उस का कारण 25 यह है कि वह साक्षात या परम्परा से स्वप्रतिपाद्यअर्थजन्य नहीं होता. केवल वासना से अन्य होता है। अतः निष्कर्ष यही हुआ कि अविसंवादकता प्रापणशक्तिस्वरूप है और यह प्रापणशक्तिरूप प्रामाण्य सिर्फ प्रत्यक्ष/अनुमान - दो में ही संगत है।
प्रश्न :- प्रत्यक्ष-अनुमानयुगल में अर्थप्रापकता यानी अर्थप्रापणशक्ति मानने के लिये क्या आधार
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उत्तर :- किसी भी प्रमाण की अन्तर्निहित प्रापणशक्ति अर्थ के अविनाभाव-मूलक होती है। ‘अर्थ के विना अनुत्पत्ति' यही प्रमाण की प्रापकता का मूलाधार है। इस का निश्चय, दर्शनात्मक प्रत्यक्ष
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