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________________ ४६ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ परिकल्प्यते। न च सन्तानः संभवति- स हि स्वरूपेण वा वस्तुसन् भवेत् सन्तानिरूपेण वा ? न तावत् स्वरूपेण, सन्तानिव्यतिरेकेण तस्य वस्तुसतोऽनभ्युपगमात्, अभ्युपगमे वा क्षणिकवादहानिप्रसक्तिः सामान्यानभ्युपगमश्च निर्निबन्धनो भवेत् इति न तस्य स्वरूपेण प्रवृत्त्यादिविषयता। सन्तानिरूपेणाऽपि तस्य सत्त्वे सन्तानिन एव तथाभूता, न तद्व्यतिरिक्तः सन्तानः प्रवृत्त्यादिविषय: । सन्तानिनां चोत्पत्त्यनन्तरध्वंसित्वात् न तद्विषयस्य विज्ञानस्य प्रदर्शितार्थप्रापकत्वम् । दृश्य-प्राप्ययोः क्षणयोरत्यन्तभेदात; यत्र हि देश-कालाऽऽकारभेदादभेदेन प्रतीयमानस्यापि वस्तुनो भेदोऽभ्युपगम्यते तत्र स्वरूपेण भिन्नयोः पूर्वोत्तरक्षणयोः कथमभेदः येन प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं साधननिर्भासिज्ञानस्य युक्तिसंगतं भवेत् ? __अथ संवृत्या सन्तानस्य स्वरूपसिद्धेः पूर्वोक्तमदूषणम्। तथा च प्रतिपादितम्- 'सांव्यवहारिकस्य प्रमाणस्यैतल्लक्षणम्' [ ]। नन्वेवं लोकव्यवहारानुरोधेन यदि प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं प्रमाणस्याभ्युपगम्यते 10 संगति नहीं है। प्रत्यक्ष में उस की संगति करने हेतु बौद्धवादी सन्तान का आशरा लेते हैं। वास्तव में सन्तान ही संभव नहीं है। यदि वह है तो १स्वरूप से वास्तविक है या २सन्तानि (क्षण) रूप से ? एक का भी समुचित उत्तर नहीं है। १सन्तानि से पृथक् अपने ही स्वरूप से सन्तान की वस्तुसत् रूपता बौद्ध नहीं मानते हैं। मानेंगे तो अनेकक्षणव्यापक सन्तान होने से क्षणिकवाद की मौत हो जायेगी, उपरांत अनेकक्षणव्यापक (यानी नित्य) सामान्य पदार्थ का भी स्वीकार करना होगा। सामान्य 15 को अस्वीकार करने का कोई बहाना नहीं रहेगा। तात्पर्य, स्वरूपसत् न होने से सन्तानि प्रवृत्ति का विषय बन नहीं सकता, प्रवृत्ति के विना प्राप्ति भी शक्य नहीं है। अगर उसे २सन्तानिरूप से सत् मानेंगे, उस का फलितार्थ तो यही होगा कि सन्तानि ही सत् हैं, उन से अतिरिक्त कोई सन्तान पदार्थ नहीं बचता जिस की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति संगत हो। सन्तानि भी प्रवृत्तिविषय बन नहीं पायेगा क्योंकि प्रवृत्ति के लिये अनेक क्षण चाहिये, सन्तानि तो क्षणिक होने से उत्पत्ति के बाद तुरंत ही 20 ध्वस्त हो जायेगा, कैसे उस में प्रवृत्ति होगी और उस की प्राप्ति भी प्रवृत्ति के विना नहीं होगी। उस का नतिजा यही आया कि बौद्ध मत में विज्ञान में प्रदर्शितार्थप्रापकत्व संगत नहीं होता। * दृश्य-प्राप्य के एकीकरण का प्रयास व्यर्थ * बौद्ध मत में तो प्रत्यक्ष प्रदर्शित अर्थक्षण (दृश्य) और प्राप्तिविषय (प्राप्य) अर्थक्षण भिन्न भिन्न ही होता है। जब बौद्ध वादी, भिन्न क्षणों में अनुवर्तमान फलादि वस्तु के ऐक्य की प्रतीति सभी 25 को होने पर भी देश-काल-आकार के भेद का प्रसज्जन कर के उन फलादि वस्तुओं में भेद का प्रतिपादन करता है, तब स्वरूपतः जहाँ भेद सिद्ध है ऐसे पूर्वोत्तर (दृश्य-प्राप्य) क्षणों में अभेद का व्यवहार किस मुँह से कहेगा ? जब अभेद ही नहीं है तब साधननिर्भासि (इष्टप्रापक) ज्ञान में प्रदर्शितार्थप्रापकत्व कैसे माना जा सकता है ? * लोकव्यवहारसिद्धप्रमाणलक्षण से नित्यानित्य अर्थ की सिद्धि * 30 बौद्ध :- आपने जो सन्तान के स्वरूपसत्त्व का निरसन किया वह ठिक नहीं है क्योंकि सन्तान को भी संवृति यानी कल्पना के प्रभाव से - अर्थात् लोकव्यवहार अनुरोध से हम स्वरूपसत् मान कर ही चलते हैं। इस में क्षणिकवाद की मौत होने का दूषण नहीं लगेगा, क्योंकि सन्तान कल्पनानिर्मित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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