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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२
अतो यथा अधिगतार्थाधिगन्तुरर्थक्रियानि सिज्ञानस्य प्रामाण्यम् तथा साधननिर्भासिनोऽप्यभ्युपगन्तव्यम् । न च सामान्यविशेषतादात्म्यवादिन एकान्ततोऽनधिगतार्थाधिगन्तृत्वं प्रमाणस्य संभवति, इदानीन्तनास्तित्वस्य पूर्वाऽस्तित्वाभेदात् तस्य च पूर्वमप्यधिगतत्वसम्भवात्। कथञ्चिदनधिगतार्थाधिगन्तृत्वाभ्युपगमे अस्मन्मतानुप्रवेशप्रसक्तिः।
अथाऽप्रेक्षापूर्वकारितया प्रमाणस्यानुपालम्भविषयत्वेऽपि पुरुषस्य प्रेक्षापूर्वकारिणोऽधिगतविषयमपि प्रमाणं पर्येषमाणस्योपालम्भविषयता, स हि पूर्वाधिगते वस्तुनि प्रेक्षापूर्वकारी किमित्यधिगमाय प्रमाणान्तरमन्वेषते निष्पन्नप्रयोजनापेक्षया हेतुं व्यापारयतः प्रेक्षापूर्वकारिताहानिप्रसक्तेः। नैतदेवम्, यतः प्रीत्यतिशयादेः प्रयोजनस्याऽनिष्पन्नस्य भावात् तन्निष्पत्त्यर्थमुपायान्वेषणं न प्रेक्षापूर्वकारितां तस्योपहन्तुं समर्थम् । तथाहि
* एकान्ततः अनधिगतार्थाधिगन्तृत्व का असंभव * 10 दूसरी बात यह है कि जैनदर्शनादि के मत में तो सामान्य एवं विशेष पदार्थों में कथंचित्
अभेद ही मान्य है, अतः उन के मत में कोई भी तथाकथित नूतन अर्थ भी सर्वथा अगृहीत नहीं है। सामान्य पदार्थ मिट्टी एवं नूतन जात घट (विशेष)- इन दोनों का तादात्म्य है अत एव वर्तमानकालीन घट का अस्तित्व पूर्वकालीन मिट्टी के अस्तित्व से अभिन्न ही है। इस स्थिति में नूतन जात वर्तमानकालीन
घट भी पूर्वकालीन मिट्टीज्ञान से कथंचित् गृहीत ही है, इसलिये वर्तमानकालीन घट का ज्ञान भी पूर्वज्ञात 15 अर्थ का ही अधिगन्ता है, अनधिगत अर्थ का अधिगन्ता नहीं है। इस का मतलब यही हुआ कि
सामान्य-विशेषतादात्म्यवादीयों के मत में, प्रमाण में एकान्तरूप से अनधिगत अर्थ का अधिगन्तृत्व स्वरूप प्रामाण्य सम्भव ही नहीं है। यदि कहा जाय कि - एकान्तरूप से नहीं किन्तु कथंचिद्अनधिगत अर्थ के अधिगन्तत्व को ही हम प्रमाण का लक्षण मानेंगे - तो स्याद्वादअपरनाम कथंचिद्वाद:
लाचारी से भी प्रवेश हो जायेगा जो आप के लिये अनिष्ट है। 20
* प्रेक्षापूर्वकारी पुरुष को ज्ञातार्थज्ञान के लिये उपालम्भ अनुचित * यदि ऐसा कहा जाय - ज्ञात अर्थ के अधिगम से प्रमाण द्वारा प्रमाता के सिर पर अप्रेक्षापूर्वकारिता का उपालम्भ तो हम नहीं देना चाहते। किन्तु प्रेक्षापूर्वकारी पुरुष अधिगतविषयक ज्ञान को भी ‘प्रमाण' की कक्षा में बैठाना चाहेगा तो उपालम्भ का भाजन क्यों न बनेगा ? प्रश्न यह है कि प्रेक्षापूर्वकारी
पुरुष (जो कि पिष्टपेषण कभी नहीं चाहेगा वह) पूर्वज्ञात वस्तु को पुनः जानने के लिये अन्य प्रमाण 25 के उदय को क्यों ढूंढेगा ? अन्य प्रमाण से जानने के लिये आयास करने के पहले ही जब ‘अर्थज्ञान'
कार्य निष्पन्न हो चुका है, फिर भी पुनः उसी को जानने के लिये चक्कर चलाते रहेंगे तो बुद्धिमत्ता की कमी का ही प्रदर्शन होगा।
- तो यह ठीक नहीं है। प्रमाण का प्रयोजन सिर्फ 'अर्थज्ञान' नहीं है, सातिशय प्रीति-आह्लाद आदि भी प्रमाणकार्य ही है। मनपसंद चीज को आदमी एक बार देख कर संतुष्ट नहीं हो जाता, 30 उसे तृप्ति नहीं होती, जिनेश्वरप्रभु की नयनरम्य प्रतिमा का जितनी बार दर्शन करें, नयी नयी आह्लादक अनुभूतियाँ होती है। अत एव प्रेक्षक उस का बार बार दर्शन करता है। जब तक संतुष्टि न हो
तक प्रयोजन अनिष्पन्न रहने से पुनः पुनः उसी अर्थ को जानने के लिये दृष्टा अन्वेषण करे
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