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________________ ३५ खण्ड-४, गाथा-१ कत्वेन प्रमाणत्वात्। न च प्रमित्यन्तरजनकत्वेऽप्यधिगते विषये तस्याऽकिञ्चित्करत्वेनोपालम्भविषयता, स्वहेतुसन्निधिबलादधिगतमनधिगतं वा वस्त्वधिगच्छतोऽप्रेक्षापूर्वकारितयोपालम्भविषयतानुपपत्तेः। न चैकान्ततोऽनधिगतार्थाऽधिगन्तृत्वे प्रामाण्यं तस्याऽवसातुं शक्यम् तद्ध्यर्थतथाभावित्वलक्षणं संवादादवसीयते। स च तदर्थोत्तरज्ञानवृत्तिः। न चाऽनधिगतार्थाधिगन्तुरेव प्रामाण्ये संवादप्रत्ययस्य प्रामाण्यमुपपन्नम्। न चाप्रमाणेन संवादप्रत्ययेन प्राक्तनस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयितुं शक्यम् अतिप्रसङ्गात्। 5 यदि कहा जाय- प्रमाण को यदि पूर्वज्ञात अर्थ के विषय में नयी प्रमा का जनक मानेंगे तो भी ज्ञात का ही ज्ञापन करने से उस के (प्रमाण के) ऊपर व्यर्थता का उपलम्भ जारी रहेगा। - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रमाण का तो इतना ही कार्य है कि वस्तु का यथार्थ अधिगम = ज्ञापन करना। अपने पूर्वक्षण में जैसी हेतुसामग्री सन्निहित रहेगी वैसा कार्य वह करेगा ही। पूर्वज्ञात अर्थ के अधिगम की सामग्री होगी तो वह पूर्वज्ञात अर्थ का प्रकाशन करेगा, पूर्व में अज्ञात अर्थ 10 की सामग्री होगी तो उस से जन्य प्रमाण पूर्व में अज्ञात अर्थ का प्रकाशन करेगा। प्रमाण को तो अपनी हेतुसामग्री के अनुरूप कार्य करना है, उस को यह नहीं देखना है कि मैं जिस अर्थ का प्रकाशन कर रहा हूँ वह पूर्वज्ञात है या पूर्व में अज्ञात ? मैं जो अर्थ प्रकाशन कार्य कर रहा हूँ वह है है या अव्यर्थ ? उस को तो अपनी तथाविध सामग्री के अनुरूप अपना कर्त्तव्य ही अदा करना है। अब उस के ऊपर अपनी अप्रेक्षापूर्वकारिता यानी विना सोच कर ही काम करने की आदत के द्वारा 15 व्यर्थता का अभियोग लगाना युक्तिसंगत नहीं है। एकान्तरूप से जो अज्ञातार्थाधिगमात्मक ज्ञान है उसी में ही प्रामाण्य का स्वीकार करेंगे (न कि कथंचिद् अज्ञातार्थ में) तो ऐसे प्रामाण्य का अवबोध ही अशक्य हो जायेगा। कारण, प्रामाण्य की व्याख्या ज्ञातृव्यापारप्रमाणवादी मीमांसक के मत में ऐसी है - अर्थतथाभाव प्रामाण्य है; जैस वैसा ही ज्ञान हो यही प्रामाण्य है; ऐसा प्रामाण्य का बोध मीमांसक मत के मुताबिक अर्थक्रियावभासि 20 संवादज्ञान से ही होता है; संवादरूपता तो पूर्वज्ञात अर्थ के उत्तरकालीन ज्ञान में ही रहती है। इस का मतलब यह हुआ कि पूर्वज्ञात अर्थग्राहक उत्तरज्ञानात्मक संवादी ज्ञान से ही पूर्वज्ञान का प्रामाण्य गृहीत हो सकता है। यहाँ मुसीबत यह है कि खुद संवादीज्ञान का ही प्रामाण्य संकटग्रस्त वह तो पूर्वज्ञातअर्थग्राही ही है जब कि मीमांसक तो पूर्वअज्ञात अर्थग्राहि ज्ञान को ही प्रमाण मानने पर तुला है। जब वह संवादिज्ञान का प्रामाण्य सिद्ध नहीं होगा तब तक तो वह अप्रमाणभूत ही 25 रहेगा, अप्रमाणभूत संवादिप्रतीति पूर्वतन प्रतीति के प्रामाण्य की व्यवस्था करने लग जाय यह संभव नहीं है। फिर भी अप्रमाण संवादिज्ञान से प्रामाण्यग्रहण मानेंगे तो भ्रम-संशय आदि अप्रमाणज्ञान से भी प्रामाण्यग्रहण हो जाने का महान् संकट खडा होगा। निष्कर्ष, जैसे पूर्वगृहीत अर्थ को ग्रहण करने वाले अर्थक्रियानिर्भासी (जलज्ञान के अनन्तर जो जलपानजन्य तृषोपशमरूप अर्थक्रिया का प्रकाशक) संवादिज्ञान को पूर्वगृहीतग्राही होने पर भी प्रमाण ही मानना पडेगा - वैसे ही साधननिर्भासि (यानी 30 तृषोपशम के साधन भूत जल का प्रकाशक) पूर्वकालीन ज्ञान को भी प्रमाणात्मक मानना ही पडेगा चाहे वह भी पूर्वज्ञात अर्थग्राहि क्यों न हो ?! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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