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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२
इति वक्तव्यम् तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावान शून्यतेति न साकारज्ञानप्रमाणवादोऽभ्युपगमार्केऽनेकदोषदुष्टत्वादिति स्थितम्।
# मीमांसकीय प्रमाणलक्षणेऽनधिगतार्थाधिगन्तृत्वस्य निरसनम् ॥ जैमिनीयाभिमतस्य तु ज्ञातृव्यापारस्य फलानुमेयस्य यथा प्रमाणता न संभवति तथा स्वतःप्रामाण्यं 5 निराकुर्वद्भिः प्रदर्शितम् (प्र.खण्डे ८८-५) इति न पुनः प्रतन्यते। यदपि अनधिगतार्थगन्तृत्वं ज्ञातृ
व्यापारविशेषणत्वेन प्रतिपादितम् (पृ०२-पं०१२) तदप्यसंगतमेव; यतः प्रमाणं वस्तुन्यधिगतेऽनधिगते वाऽव्यभिचारादिविशिष्टां प्रमा जनयन्नोपालम्भविषयः। न चाधिगते वस्तुनि किं कुर्वत् तत्प्रमाणतामाप्नोतीति वक्तव्यम् विशिष्टप्रमां विदधतस्तस्य प्रमाणताप्रतिपादनात् । न च पूर्वोत्पन्नैव प्रमा तेन जन्यते, प्रमित्यन्तरोत्पादस्वीकारयोग्य नहीं है क्योंकि उस में अनेक दोषों का खतरा है।
अत्र प्रतिविधीयते.. (पृ.२२-पं.३) यहाँ से प्रारम्भ कर के ग्रन्थकर्त्ताने बाह्यार्थ की स्थापना, ज्ञान स्वरूपतः निराकार किन्तु अर्थप्रभावतः साकार (सविषयक) हो कर प्रमाण होता है, बाह्यार्थ के अस्तित्व के विना केवल साकार ज्ञान अप्रमाण है (पृ०२२-पं०३१) - इस चर्चा को पूर्ण किया।
* मीमांसामत का अनधिगतार्थाधिगन्तृत्व विशेषण दुर्घट * जैमिनी ऋषि प्रणीत मीमांसा दर्शन में 'अनधिगतअर्थ का अधिगन्ता ज्ञातृव्यापार' प्रमाणरूप माना 15 गया है। अर्थ की अपरोक्षता रूप फल के उदय से वहाँ ज्ञातृव्यापार का अनुमान किया गया है।
इस ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में (पृ.८८-पं०२६) ज्ञाता का व्यापार प्रमाणात्मक नहीं हो सकता यह स्वतः प्रामाण्य की असंगति दीखाते हुए विस्तार से कहा गया है। अतः उस का पुनः निरूपण नहीं करेंगे। हाँ, वहाँ सिर्फ ज्ञातृव्यापार के असम्भव की विशेष चर्चा की गयी थी। उस के विशेषणभूत
अनधिगतअर्थअधिगन्तृत्व यानी अज्ञातार्थप्रकाशकत्व (पृ.३-पं०१८) की चर्चा नहीं की गयी, वह कैसे 20 असंगत है यह अभी कहते हैं। - प्रमाण का इतना ही कृत्य है कि वह व्यभिचारादिदोषरहित प्रमात्मक
ज्ञान का उत्पादन करे, इस प्रकार के स्वरूप से ही प्रमाण सर्वत्र अनुभवगोचर होता है, जिस वस्तु का प्रमात्मक ज्ञान वह कराता है उस वस्तु का उस के पूर्व अधिगम हुआ हो या न हुआ हो उस के साथ प्रमाण को कोई ताल्लुक नहीं है।
यदि पूछा जाय - प्रमाण तो तभी प्रमाणात्मक बन सकता है जब कि वह किसी भी प्रकार 25 अज्ञात रह गये अर्थ का प्रकाशन करे, यदि उस का विषयभूत अर्थ पूर्वज्ञात रहेगा तो उस को (प्रमाण
को) क्या नया करना है जिससे कि वह अपनी प्रमाणात्मकता को सुरक्षित रख सके ? - तो इस का उत्तर यह है कि जिस वस्तु का पहले प्रकाशन हो चुका है उस का पुनः प्रकाशन करते समय पूर्व प्रमा से कुछ विशिष्ट यानी अधिक स्पष्टतादि विशेष गर्भित प्रमा को प्रमाण उत्पन्न करेगा -
जो पूर्व में नहीं हुआ है, इस तरह प्रमाण पूर्वज्ञात अर्थ का प्रकाशन करते समय भी अपनी प्रमाणात्मकता 30 को सुरक्षित रख सकता है। हम ऐसा नहीं कहते कि पहले जो प्रमा उत्पन्न हो चुकी है उसी का
पुनर्जनन प्रमाण करता है, हम तो कहते हैं कि पूर्वज्ञात अर्थ की नयी प्रमा को - विशिष्ट प्रमा को ही प्रमाण उत्पन्न कर सकता है, इसी वजह उस का प्रामाण्य अक्षुण्ण है।
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