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खण्ड-४, गाथा-१ तज्जनकस्य कल्पनाप्रसक्तिः, तत्राऽप्येवमित्यनवस्था भवेत्। तन्न साकारज्ञानानुभववशादर्थव्यवस्था।
प्रकाशतानुप्रविष्टता चार्थाकारस्याऽयुक्तैव वस्त्वन्तरानुप्रवेशाऽसम्भवात्। सम्भवे वा प्रकाशताया अपि चैतन्यरूपताया पृथिव्याद्यनुप्रवेशात् परलोकाय दत्तो जलाञ्जलिर्भवेत्। यदपि ‘अर्थवादिन एवायं दोषो ज्ञानवादे तु सिद्धसाध्यता' (पृ.२२-५०१) इति, तदपि न्यायबहिष्कृतम्, प्रमाणसिद्धस्याप्यर्थस्याऽभावो यदि न दोषाय भवेत् ज्ञानाभावोऽपि न दोषाय स्यात्। न च शून्यताभ्युपगमात् तदभावोऽपि न दोषावह 5
* साकारवाद में साकारताजनक के जनक की अनवस्था - दोष यह भी एक अधिक दूषण होगा - साकारवाद में ग्राहक की साकारता को अर्थजन्य ही मानेंगे, और उस साकारता को भी प्रतिभासगोचर ही मानना होगा। अन्यथा साकारता सिद्ध नहीं होगी। प्रतिभास भी साकारता-आकार तभी माना जा सकेगा जब कि वह साकार रूप अर्थ से उत्पन्न होगा। एवं जनक आकार को ही प्रतिभास का विषय मानने पर साकारता भी जनक हो कर ही प्रतिभास का विषय 10 बन सकेगी। उस के लिये खुद साकारता को भी किसी का जनक मानना होगा, उस के जनक को भी किसी से जन्य मानना पडेगा, ऐसा नहीं मानेंगे तो साकारता अजनक होने से उस का प्रतिभास ही संगत नहीं होगा। अगर वैसा मानेंगे तो उस का भी जनक, उसका भी जनक... इस प्रकार जनक की कल्पना का विराम ही नहीं होगा - अनवस्था दोष प्रसक्त होगा। निष्कर्ष, साकारज्ञान के अनुभव के बल पर अर्थ की व्यवस्था मानना शक्य नहीं है।
15 * प्रकाशता में अर्थाकार प्रवेश मानने पर परलोकभंग का प्रसंग * __ अभ्युपगम कर के जो कहा था कि - अर्थाकार प्रकाशता में अनुप्रविष्ट होता है - वह भी अयुक्त ही है क्योंकि एक वस्तु के स्वरूप का अन्यवस्तु में अन्तःप्रवेश सम्भव ही नहीं है। (अश्व के स्वरूप में गधे के स्वरूप का अन्तःप्रवेश सम्भव ही नहीं है।) यदि ऐसा भी हो सकता, तो पृथ्वी आदि आकार का प्रकाशता (यानी चैतन्य) में अनुप्रवेश की भाँति चैतन्य रूपता का अनुप्रवेश 20 पृथ्वी आदि में हो जाता, फलतः चैतन्य सर्वतः लुप्त हो जाने से, परलोकगामी आत्मा की कथा ही समाप्त हो जायेगी, फिर परलोक को जलाञ्जलि दे दो। यह जो अर्थतः कहा था (पृ.२२-पं०८) - 'अर्थव्यवस्था का अनियम अथवा अर्थ की असिद्धि का आपादन तो बाह्यअर्थअस्तित्ववादी के सिर पर ही दोषरूप है, विज्ञानवाद में तो ज्ञानभिन्न अर्थ का अस्तित्व न होने से कोई दोष नहीं है, अपि तु सिद्धसाधनता ही है।' - यह कथन भी न्यायविरुद्ध है। प्रमाणसिद्ध अर्थों की व्यवस्था या असिद्धिदोष 25 का वारण करने के बजाय आप उस के अभाव को ही मान्य करने में कोई दोष नहीं मानेंगे तो 'ज्ञान का भी अस्तित्व नहीं है' इस मान्यता में भी दोष नहीं होगा।
ऐसा मत कहना कि- 'हम ‘सर्वं शून्यम्' वादी बन जायेंगे अतः ज्ञानाभाव में भी सिद्धसाधनता होने से दोष नहीं रहेगा' - क्योंकि शून्यता की स्थापना के लिये भी प्रमाण का अस्तित्व मानना होगा, ‘सर्वं शून्यम्' पक्ष में अगर प्रमाण को भी नहीं मानेंगे तो शून्यता की सिद्धि ही नहीं कर 30 पायेंगे।
निष्कर्ष यह सिद्ध होता है कि - अर्थ का अपलाप कर के 'साकारज्ञान प्रमाण है' ऐसा पक्ष
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