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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ कार्यव्यतिरेकात् अर्थापत्त्या वाऽर्थपरिकल्पना किन्तु तद्ग्राहकप्रतिभासवशात्। साकारज्ञानवादिनस्तु यदि ज्ञानाकारोऽर्थव्यतिरेकेण नोपपद्यते इत्यर्थव्यवस्थापकस्तदाऽनियतार्थव्यवस्थापकः स्यात् । 'जनकस्यैव व्यवस्थापक' इति चेत् ? न, चक्षुरादेरपि व्यवस्थापक: स्यात्। 'तज्जनकत्वेऽपि चक्षुरादेरतदाकारत्वान्नेति' चेत् ?
ननु चक्षुरादिजन्यत्वेऽपि किमिति तज्ज्ञानं तदाकारं न भवति चक्षुरादि वा स्वाकारज्ञानाजनकमिति 5 वक्तव्यम् ? स्वहेतुबलायाततत्स्वभावत्वात् तयोरिति चेत् ? ननु निराकारज्ञानपक्षेऽपि तत्स्वाभाव्याद्
ज्ञानमेव चक्षुरादिव्यतिरेकेण स्वजनकार्थव्यवस्थापकमिति किं नाभ्युपगम्यते न्यायस्य समानत्वात् ? किञ्च, ग्राहकस्यार्थजन्यत्वेन साकारता सा च प्रतिभासगोचरा एवं च ग्राहके आकारस्य जनकस्यैव प्रतिभासविषयत्वेऽन्यस्य ज्ञानाकार) के बल पर ही बाह्यार्थ को सिद्ध करते हैं तो उस का एक बार अनैच्छिक स्वीकार कर
के हमने कहा है कि कार्यव्यतिरेक या अर्थापत्ति से सिद्ध बाह्यार्थ भी ज्ञानाकार से अतिरिक्त नहीं 10 है।" - ऐसा जो साकारवादीने कहा है वह भी अन्यदर्शन के मत की अज्ञानता का प्रदर्शनमात्र है।
हमारे जैन मतानुसार बाह्यार्थ के स्वतन्त्र अस्तित्व की सिद्धि उस के स्वतन्त्र अस्तित्व के ग्राहक प्रतिभास (यानी प्रत्यक्षादिप्रमाण) से ही हो जाती है, न कि कार्यव्यतिरेक या अर्थापत्ति से।
साकारवाद में नियत अर्थव्यवस्था असंभव साकारज्ञानवाद में दूषण यह है कि उस मत में यदि अर्थ के विना अनुपपद्यमान (= असंगत) 15 ज्ञानाकार यदि अर्थ का व्यवस्थापक (= साधक) माना गया तो वह सिर्फ अर्थ का ही व्यवस्थापक
होगा किन्तु नियत (नील ही है पीत नहीं एवंविध) अर्थ का व्यवस्थापक नहीं हो सकेगा, क्योंकि ज्ञानाकार की अनुपपद्यमानता अर्थ के साथ संलग्न है नील के साथ नहीं है। यदि कहा जाय - जो भी उस ज्ञानाकार का जनक होगा उसी का ही ज्ञान व्यवस्थापक बनेगा, इस प्रकार नियत अर्थ का
व्यवस्थापक बन सकता है। - तो यह भी अयुक्त है क्योंकि नील अर्थ से उत्पन्न ज्ञानाकार चक्षुआदि 20 से भी उत्पन्न होता है, अतः वह ज्ञानाकार अपने जनक चक्षु आदि का भी व्यवस्थापक बन जाने
की विपदा होगी। यदि कहें कि - चक्षु आदि ज्ञान के जनक होने पर भी ज्ञान नीलाकार जैसे होता है वैसे चक्षुआकार नहीं होता, अत एव चक्षु आदि का भी व्यवस्थापक हो जाने की विपदा नहीं होगी - तो यहाँ आप को ही उत्तर देना पडेगा कि (१) चक्षु आदि से उत्पन्न होने पर भी ज्ञान
चक्षुआकार क्यों नहीं होता ? (२) अथवा नील जैसे स्वाकार ज्ञान को उत्पन्न करता है वैसे चक्षु 25 आदि भी स्वाकार ज्ञान को क्यों उत्पन्न नहीं करता ? यदि ऐसा उत्तर दिया जाय - 'यह तो ज्ञान
का या चक्षु आदि का स्वभाव ही वैसा होता है, स्वभाव के बारे में प्रश्न नहीं हो सकता कि वह ऐसा क्यों है ? अपनी कारण सामग्री से ही वस्तु तथास्वभाव उत्पन्न होती है। मतलब, नील अर्थ, प्रकाश, चक्षु आदि कारणसामग्री का ऐसा ही स्वभाव है कि वे सब मिल कर नीलाकार ज्ञान
को उत्पन्न करते हैं।' - अहो ! तब तो निराकार ज्ञान वाद में भी ऐसा कहा जा सकता है कि 30 ज्ञान निराकार होते हुए भी जब नील अर्थ, प्रकाश, चक्षु आदि कारणसामग्री से उत्पन्न होता है तब
उस का स्वभाव ही है कि वह चक्षु आदि का व्यवस्थापक न बन कर सिर्फ अपने जनक नीलादि अर्थ का ही व्यवस्थापक बनता है। स्वभावात्मक न्याय यानी युक्ति तो उभयपक्ष में समान है।
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