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खण्ड-४, गाथा-१ सुखसाधने विषये पुनः पुनः प्रमां जनयतः प्रीत्यतिशयजनकत्वेन सप्रयोजनत्वात् प्रमाणान्वेषणस्य न तदन्वेष्टुः पुरुषस्योपालम्भार्हता। न च निश्चिते विषये न किञ्चिनिश्चयान्तरेण प्रयोजनम् यतस्तदर्थं प्रमाणान्वेषणं न वैयर्थ्यमनुभवेत् - यतो भूयो भूयः उपलभ्यमाने दृढतरा प्रतिपत्तिर्भवतीति सुखसाधनं तथैव निश्चित्योपादत्ते, दुःखसाधनं च तथात्वेन सुनिश्चित्य परित्यजेत्, अन्यथा विपर्ययेणाप्युपादानत्यागी भवेताम्।
अत एवैकविषयाणामपि शाब्दानुमानाध्यक्षाणां प्रामाण्यमुपपन्नम् प्रतिपत्तिविशेषस्य प्रीत्यतिशयादेश्च सद्भावात्। न च प्रथमप्रत्ययेनैवार्थक्रियासमर्थवस्तुप्रदर्शने प्रवर्तितः पुरुषः प्रापितश्चार्थ इति तत्रापरप्रमाणान्वेषणं वैयर्थ्यमनुभवेत्, पुरुषप्रवृत्तेः प्रमाणाधीनत्वाभावात्, विशिष्टप्रमाया एव प्रमाणाधीनत्वात्, तां च जनयतः उपेक्षणीयादौ विषये प्रमाणस्याऽप्रवर्तकस्यापि प्रमाणत्वेन लोके प्रसिद्धत्वात् । प्रवृत्तेस्तु पुरुषेच्छानिबन्धनत्वात् तो उस में प्रेक्षापूर्वकारिता की हानि होना शक्य नहीं है। फिर से सुनिये- सुख के उपायभूत विषय 10 में बार बार प्रमा को (दर्शनादि को) करनेवाला पुरुष उपालम्भपात्र नहीं हो सकता, क्योंकि नये नये प्रमाण का अन्वेषण (बार बार प्रमाणभूत प्रतीति करते रहने पर), अपर अपर सातिशय प्रीति-आह्लाद उत्पन्न करता हुआ अपनी सार्थकता को सिद्ध करता है।
* पुनः पुनः निश्चयकारक प्रमाण की सार्थकता * 'निश्चित विषय का पुनः पुनः निश्चय निष्प्रयोजन है' ऐसा कथन अनुचित है; पुनः पुनः निश्चय 15 करानेवाला प्रमाण-प्रचार निरर्थक नहीं हो सकता; क्योंकि पहली बार जब आदमी किसी चीज को देखता है (प्रमा हो जाती है) तब उस को उस विषय की ऐसी दृढीभूत प्रतीति नहीं होती जिस से कि वह जरूरत के समय तत्काल याद आ जाय । पुनः पुनः वस्तु को देखने पर इतनी दृढ अनुभूति होती है जिस से कभी भी तत्काल उस का स्मरण हो जाता है। अनुभवसिद्ध है कि आदमी एक बार किसी सुख के उपाय को देख कर उसे अपना नहीं लेता किन्तु बार बार देखने पर दृढ निश्चय 20 होता है तब उसका स्वीकार कर लेता है। तथैव, एक बार दुखजनक चीज को देखते हुए ही झटके के साथ उस से मुँह मोड नहीं लेता किन्तु बार बार देखने पर यह दुःखजनक है' ऐसा दृढीभूत निश्चय होते हुए ही उस से पल्ला छुडा लेता है। अगर इस तथ्य का स्वीकार न किया जाय तो उलटा ऐसा होगा कि हर कोई आदमी एकबार ही किसी चीज को देख कर फौरन ही उस को अपना लेगा या उस से मुँह मोड लेगा। किन्तु व्यवहार में ऐसा दीखता नहीं है। प्रेक्षापूर्वकारी पुरुष इसी 25 लिये उपालम्भपात्र नहीं किन्तु धन्यवादपात्र है।
* समानविषयक शाब्दादिज्ञानों का प्रामाण्य युक्तियुक्त * यदि अधिगत अर्थविषयक ज्ञान को 'अप्रमाण' माना जाय तो शाब्द, अनुमान और प्रत्यक्ष तीनों का प्रामाण्य संकटग्रस्त बन जायेगा। किंतु बलिहारी है कि अधिगत अर्थग्राही ज्ञान भी प्रमाण होता है इसी लिये शब्दादि तीन का प्रामाण्य सुरक्षित रहता है। किसी एक विषय का पहले शाब्द ज्ञान 30 हो जाय तब श्रोता उस के लिंग ज्ञान के द्वारा उसी पदार्थ का अनुमान करता है (परार्थ अनुमान में ऐसा ही होता है।) अनुमिति के बाद ज्ञाता को उस पदार्थ के दर्शन की तीव्र उत्कंठा होने पर वह उस के दर्शनार्थ प्रयास कर के उस अर्थ का प्रत्यक्ष बोध करता है तब उस को सातिशय आह्लाद
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