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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ एव नियमहेतोः प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकत्वं भविष्यतीति तत्साकारतापरिकल्पनं व्यर्थम् । यदपि ‘चक्षुरादिना रूपमुपलभ्यते' इतिव्यपदेशनिबन्धनं चक्षुरादिजन्यत्वं रूपाकारप्रकाशस्य उक्तम् (पृ.२०-पं०४), तदपि स्वजाड्याविष्करणमात्रम्; यतो यया प्रत्यासत्त्या चक्षुरादिकं समानकालं भिन्नकालं वा भिन्न रूपाद्याकारं
ज्ञानं जनयति तयैव निराकारमपि ज्ञानं समानकालं भिन्नकालं वा स्वग्राह्यं भिन्नमपि ग्रहीष्यति। न हि 5 चक्षुरादेविभिन्नकार्योत्पादनवद् विभिन्नग्राह्यग्रहणे शक्तिप्रक्षयः कश्चिद् ज्ञानस्य संभवी।
___ अथ विभिन्नकार्योत्पादनमप्यसंभवीति नाभ्युपगम्यते तर्हि 'प्रमाणमविसंवादि' (प्र.वा.१-६) इति प्रमाणलक्षणप्रणयनमनर्थकं धर्मकीर्तेरासज्यते, अविसंवादित्वस्यार्थक्रियाज्ञानजनकत्वलक्षणस्याऽभावात् । अथ व्यावहारिकमेतत् प्रमाणलक्षणं न पारमार्थिकम्- 'किं तर्हि पारमार्थिकमिति वक्तव्यम् ? 'अज्ञातार्थप्रकाशो
वा' इति चेत् ? न, अत्रापि यद्यज्ञातस्यार्थस्य प्रकाश: स्वसंविदितोऽर्थग्रहणपरिणाम आत्मसम्बन्धी 10
* चक्षु से रूपोपलब्धि के व्यवहार की निराकारवाद में संगति * यह जो कहा गया था - (पृ.२०-पं०२७) “चक्षु आदि से रूप की उपलब्धि होती है - ऐसे व्यवहार की संगति के लिये चक्षु आदि से रूपाकार प्रकाश के उद्भव को मानना होगा।” - यह भी सिर्फ आप की बुद्धिजडता का ही प्रकाशनमात्र है, क्योंकि जिस प्रत्त्यासत्ति यानी संनिकर्ष के बल पर चक्षु
अपने समानकाल या भिन्न काल में अपने से भिन्न रूपादिआकार (रूपादिग्राहक) ज्ञान को जन्म 15 देते हैं उसी प्रत्यासत्ति के द्वारा निराकार ज्ञान भी अपने समानकाल या भिन्न काल में अपने से
भिन्न अपने ग्राह्य रूपादि को ग्रहण कर सकता है। ऐसा कोई संभव नहीं है कि ‘साकार ज्ञानपक्ष में चक्षु आदि के द्वारा अर्थभिन्न ज्ञान तो उत्पन्न हो लेकिन उस ज्ञान के द्वारा (ज्ञान निराकार होने पर भी) अपने से भिन्न ग्राह्य को ग्रहण करने की शक्ति प्रक्षीण हो जाय।'
* साकारवाद में धर्मकीर्तिनिगदित प्रमाणलक्षण की अनुपपत्ति * 20 यदि कहें कि - 'चक्षुआदि से अर्थभिन्न यानी साकार ज्ञानात्मक कार्य का उद्भव भी असंभव हो
ऐसा हम नहीं मानते हैं।' – तो यह जान लो कि धर्मकीर्ति आदि बौद्ध विद्वानों ने प्रमाण का जो यह लक्षण कहा है - ‘अविसंवादि ज्ञान प्रमाण है' यह लक्षणकथन निरर्थक ही ठहरेगा। क्यों ? इसलिये कि असंवादित्व का अर्थ आपने यही माना है कि अर्थक्रियाज्ञानजनकत्व, किन्तु वह संभव नहीं होगा।
कारण, साकार ज्ञानवाद में अर्थक्रिया एवं उस का ज्ञान ही असंभव होगा। यदि कहें कि 'वह प्रमाणलक्षण 25 पारमार्थिक नहीं है, सिर्फ व्यवहार के लिये है।' - तो बताओ कि पारमार्थिक प्रमाणलक्षण क्या है ?
यदि कहेंगे कि 'अज्ञात अर्थ का प्रकाश' यही पारमार्थिक प्रमाणलक्षण है तो यह आप के मत के साथ संगत नहीं है, क्योंकि आत्मतत्त्व का जो स्वसंविदित अर्थग्रहणपरिणाम है उसी को अज्ञात अर्थ का (यानी वास्तव बाह्यार्थ का) प्रकाश माना जाय तो हमारे ही मत में आप का प्रवेश हो जायेगा, क्योंकि जैन मत में यही कहा गया है। अब तो विवाद न रहने से कोई दोष नहीं रहता है।
स्वरूप संवेदनात्मक प्रमाणलक्षण में प्रत्यक्षबाध* यदि कहा जाय - (ज्ञान के) अपने स्वरूप का ही अपने आप भान होता है' ऐसा प्रमाणवार्तिक 7. प्रमाणव्याख्यावैविध्यं ग्रन्थनामोल्लेखसहितं दृष्टव्यं भूतपूर्वसम्पादकयुगलसम्पादितसंस्करणे ४६५ पृष्टे षडङ्कटीप्पण्याम् ।
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