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खण्ड-४, गाथा-१ तदाऽनेकान्तवादापत्तिः। अथ सर्वात्मना सारूप्यम् तदोत्तरक्षणस्य पूर्वक्षणरूपताप्रसक्तिरित्येकक्षणमात्रं सर्व सन्तानो भवेत्। न च पूर्वोत्तरक्षणयोः परपक्षे भिन्नमभिन्नं वा एकान्ततः सारूप्यं संभवति, भेदपक्षे सामान्यवादप्रसक्तेः, अभेदपक्षे तु तदभावप्रसक्तेः। न च परपक्षे सारूप्यग्रहणोपायः संभवतीत्युक्तम्।
किञ्च, यदि नीलाकारं ज्ञानमनुभूयत इति बाह्योप्यर्थो नीलतया व्यवस्थाप्यते तर्हि त्रैलोक्यगतनीलार्थव्यवस्थितिस्ततो भवेत्, सर्वनीलार्थसाधारणत्वात्तस्य। अथ नीलाकारताऽविशेषेऽपि कश्चित् 5 प्रतिनियमहेतुस्तत्र विद्यते यतः पुरोवर्त्तिन एव नीलादेस्ततो व्यवस्था, तर्हि अनाकारत्वेऽपि ज्ञानस्य तत एवं समनन्तर (जिस के उत्तर में समान ज्ञानक्षण ने जन्म लिया है,) ज्ञान क्षण है उस के प्रति उत्तरकालीन ज्ञानक्षण ग्राहक हो जायेगा क्योंकि उन दोनों में कार्यकारणभाव भी मौजूद है। यदि कहा जाय - उत्तर ज्ञानक्षण के साथ समनन्तर ज्ञान क्षण का कारण-कार्यभाव होने पर एवं सादृश्य होने पर भी अपेक्षित तथाविध सारूप्य नहीं होने से ग्राहकता का प्रसंजन नहीं हो सकेगा। - तो यहाँ 10 प्रश्न है कि वह अपेक्षित सारूप्य कथञ्चित (कुछ अंशो में) ही है या समग्ररूप से सारूप्य है ? यदि कथञ्चित् ही है तब तो अनेकान्तवाद का विजय हो गया। यदि पूर्वक्षण-उत्तरक्षणों का सर्वप्रकार सारूप्य मानेंगे तब तो पूर्वापरक्षणस्वरूप पूरा सन्तान सर्वथा सारूप्य होने के कारण, अभिन्नता की प्रसक्ति से एक क्षणमात्र बच जायेगा। * सारूप्य का एकान्त भेद-अभेद पक्ष दोषग्रस्त *
15 दूसरी बात यह है कि सारूप्य को पूर्वक्षण या उत्तरक्षण से एकान्तरूप से न तो भिन्न मान सकते हैं न तो एकान्त से अभिन्न। भिन्न मानेंगे तो न्यायवैशेषिकमत की तरह द्रव्यादि से पृथक् स्वतन्त्र सामान्य यानी जातिपदार्थ के स्वीकार की विपदा आयेगी। यदि एकान्त से अभिन्न मानेंगे तो सिर्फ पूर्व या उत्तरक्षण ही शेष रहेंगे, सारूप्य जैसी कोई चीज ही नहीं बचेगी। यह भी एक संकट है कि एकान्त क्षणिक अर्थवादि के मत में क्षणद्वयस्थायी कोई ग्रहीता न होने के कारण पूर्व 20 एवं उत्तर क्षण के सारूप्य का ग्रहण भी संभवित नहीं है, क्षणभंगनिरसन के अवसर में (द्वितीयखण्डे पृ० १८२,२४०) यह कह दिया है।
* नीलाकार ज्ञान से नीलव्यवस्था मानने पर अतिप्रसंग * यह भी सोचना जरूरी है कि - नीलाकार ज्ञान के अनुभव के बल से यदि बाह्य अर्थ नील होने की स्थापना की जाय तो वह नीलाकार सर्व बाह्य नील अर्थों में मौजूद होने से उन सभी 25 त्रिलोकवर्ती बाह्य नील अर्थों की स्थापना एक ही नीलाकार ज्ञान से हो जाने का अतिप्रसंग खडा होगा। यदि यह कहा जाय – 'ज्ञान में नीलाकार अवश्य है, लेकिन सिर्फ उस के ही बल पर बाह्य पदार्थ नील होने की स्थापना नहीं करते हैं अपि तु और भी कोई एक ऐसा नियम ढूँढते है जिस के बल पर ज्ञान के द्वारा सामने रहे हए नियत नीलादि अर्थ की स्थापना वास्तविक बन सके।' - तो इस कथन के सामने यह भी कह सकते हैं कि ज्ञान निराकार होने पर भी ऐसा कोई एक 30 नियम ढूँढ लो कि जिस से नियत ही नीलादि अर्थ की स्थापना निर्बाध हो सके। मतलब, नियत अर्थस्थापना के लिये ज्ञान को साकार होने की कल्पना निरर्थक है।
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