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________________ २८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ तथाहि- ग्राह्यस्य प्रतिनियतरूपसिद्धौ तदाकारा प्रकाशता सिध्यति, तत्सिद्धौ च ग्राह्यस्य प्रतिनियतरूपसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम्। न हि देवदत्तस्य प्रतिनियताकारतासिद्धौ यज्ञदत्तस्य तदाकारतासिद्धिदृष्टा। न च प्रकाशतासाकारतासिद्धिमन्तरेणापि ग्राह्यस्य प्रतिनियतरूपसिद्धिः, निराकारज्ञानस्य प्रतिकर्मव्यवस्थाहेतुत्वप्रसक्तेः। न च 'यद् यदाकारं तत् तस्य ग्राहकम्' इति व्याप्तिसिद्धिः, अन्यथोत्तरनीलक्षणः पूर्वनीलक्षणस्य ग्राहक: स्यात् । न च तस्याऽज्ञानरूपत्वान्नायं दोषः, देवदत्तनीलज्ञानस्य यज्ञदत्तनीलज्ञानग्राहकताप्रसक्तेः । न च तयोः कार्यकारणभावाऽभावान्नायं दोषः, सदृशसमनन्तरज्ञानक्षणं प्रत्युत्तरज्ञानक्षणस्य ग्राहकताप्रसक्तेः । अथ तत्र तादृग्विधसारूप्याभावान्नायं दोषः। ननु तथाविधं सारूप्यं यदि कथंचित्सारूप्यमभिधीयते मानेंगे तो इस में भी अन्योन्याश्रय दोष प्रवेश होगा। 10 * प्रकाशता की ग्राह्यरूप से भासित नीलादि आकारता मानने में अन्योन्याश्रय * अन्योन्याश्रय दोष इस तरह होगा - ग्राह्य नीलादि का नियत नीलादि आकार सिद्ध होने पर प्रकाशता ग्राह्याकार सिद्ध होगी, एवं प्रकाशता ग्राह्यनीलादिआकार सिद्ध होने पर ही ग्राह्य नीलादि का नियत नीलादिआकार सिद्ध होगा। इस तरह अन्योन्याश्रय दोष स्पष्ट है। अन्योन्याश्रय दोष के रहते हुए नीलादि आकार ही सिद्ध नहीं हो सकेगा। ऐसा नहीं देखा कि देवदत्त का नियत आकार सिद्ध 15 होने पर ही यज्ञदत्त का नियत आकार प्रसिद्ध हो। यदि कहें कि - 'प्रकाशता में नीलादिसाकारता की सिद्धि के विना भी स्वतन्त्र रूप से ही ग्राह्य का नियत आकार प्रकाशता द्वारा सिद्ध कर देंगे।'तो ऐसा कहने पर यह फलित होगा कि प्रकाशता में नियताकार सिद्ध न रहने पर भी - यानी प्रकाशता निराकार होने पर भी उस से ग्राह्य में नियताकार की सिद्धि शक्य है। इस का निष्कर्ष यह हुआ कि निराकार ज्ञान भी घट-पटादि नियत विषयतास्वरूप प्रतिकर्मव्यवस्था का हेतु 20 बन सकता है। * तदाकारता में तदग्राहकता की व्याप्ति असिद्ध * निराकार ज्ञान में विषयव्यवस्थाहेतुता के अभाव की प्रसक्ति का आपादन करने के लिये यदि ऐसा नियम बनाया जाय कि - ‘जो जिस के आकार को धारण करे वह उस का ग्राहक बने' - तो ऐसा नियम सिद्ध होना शक्य नहीं है क्योंकि ऐसा नियम मानने पर तो उत्तर नीलक्षण पूर्वनीलक्षण 25 का ग्राहक बन जायेगा क्योंकि पूर्वनीलक्षण से उत्पन्न उत्तरनीलक्षण पूर्वक्षण के नीलाकार को धारण करने वाला ही है। यदि कहें कि - 'नीलक्षण तो जड है अज्ञानरूप है इस लिये वह किसी का भी ग्राहक बने ऐसा दोष नहीं हो सकता।' - तो दूसरा दोष यह आयेगा कि देवदत्त का नीलज्ञान यज्ञदत्त के नीलज्ञान का आकार धारण करता हुआ ज्ञानरूप है, अज्ञानरूप नहीं है, अतः देवदत्त का नीलज्ञान यज्ञदत्तीय नीलज्ञान का ग्राहक बन बैठेगा। * तद्ग्राहकता का नियामक ज्ञानक्षणों का कार्यकारणभाव अशक्य * यदि ऐसा बचाव करें कि - ‘यज्ञदत्त और देवदत्त के नीलज्ञानों में कार्यकारणभाव न होने से वे एक-दुजे के ग्राहक नहीं बन सकते।' - तो नया एक दोष प्रसक्त होगा - पूर्वकालीन जो समान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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