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________________ खण्ड - ४, गाथा - १ २७ यदपि- ‘प्रकाशतामात्रेणार्थस्य सिद्धत्वाद् व्यर्थं तदपरबुद्धिपरिकल्पनम् ( पृ० १९ - पं० ७) ' तदपि सिद्धमेव साधितम् ; अर्थप्रकाशताया अर्थव्यतिरिक्ताया बुद्धित्वेन तदपरबुद्धिकल्पनाया असिद्धत्वात् । यदपि नापरं नीलाद्याकारप्रकाशताव्यतिरेकेणोपलभ्यते इति कस्यार्थे प्रत्यासन्नता परैः परिकल्प्यते' ( पृ०२०-पं० १) तदपि नीलाद्यर्थग्रहणपरिणतेर्ज्ञानस्य स्वसंवेदनाध्यक्षतः सिद्धेरयुक्ततया स्थितम् । 'प्रकाशता तु यदि निराकारा भवेत् प्रतिकर्म व्यवस्था न स्याद्' इति यदुक्तम् ( पृ० २० - पं० २) तदप्यसंगतमेव; यतः प्रकाशता किं 5 नीलाद्याकारा, आहोस्विद् ग्राह्याकाराऽभ्युपगम्यते ? यदि प्रथमो विकल्पः तदा वक्तव्यम् किमेकदेशेन नीलाद्याकारा प्रकाशता, आहोस्वित् सर्वात्मनेति ? तत्र यद्येकदेशेन तदा सांशका प्रकाशता प्रसक्तेत्यनेकान्तसिद्धिः । अथ सर्वात्मना तदा प्रकाशताया जडरूपनीलादिस्वभावत्वाद् विज्ञप्तिरूपताऽभावप्रसक्तिः, जडस्य प्रकाशरूपताऽयोगात्। अथ ग्राह्याकारा, एवमपीतरेतराश्रयत्वम् । नीलादि आकारमय ही है और उसे ही बुद्धि भी कहते हैं अतः ज्ञान की साकारता सिद्ध हो गयी' - 10 ऐसा कथन निरस्त हो जाता है । ** प्रकाशता की नीलादिआकाररूपता असंगत यह यह जो कहा था कि “नीलादिआकारात्मक प्रकाश से ही नीलादि अर्थ की सिद्धि हो जाती है, अतः नीलादि की सिद्धि के लिये अर्थापत्ति को अवकाश न होने से, अर्थ से भिन्न अथवा बुद्धि की ग्राहक अन्य बुद्धि (अर्थापत्ति) की कल्पना निरर्थक है'- ( पृ०१९ - पं० ३१) यह तो हमारे ही सिद्ध 15 मत की आप सिद्धि करने जा रहे हैं । अर्थप्रकाशता अर्थ से भिन्न है क्योंकि वह खुद ही बुद्धिस्वरूप है । अत एव उस की सिद्धि के लिये अन्य बुद्धि की कल्पना आवश्यक ही नहीं है । यह जो कहा था - “नीलादिआकारमय प्रकाश से पृथक् किसी नीलादि अर्थ का उपलम्भ ही नहीं होता, फिर उस अर्थ में किस की प्रत्यासत्ति की कल्पना आप लोगों के द्वारा की जायेगी ?" ( पृ०२०-पं० १५) कथन भी युक्तिबाह्य ही है, क्योंकि ज्ञानप्रकाश ही नीलादि अर्थ की प्रत्यासत्ति होने पर नीलादि अर्थग्रहणाकार 20 परिणाम में ढलता हुआ स्वयं विदित होने से प्रत्यक्षानुभवसिद्ध है । यह जो कहा था - ( पृ०२०- पं०१७) प्रकाशता को निराकार मानेंगे तो 'नीलप्रकाश, पीतविषयकप्रकाश' ऐसी पृथक् पृथक् विषयों की व्यवस्था ही नहीं घटेगी घटपटादिआकार शून्य केवल आलोक से घटादि का प्रकाशन शक्य नहीं...' यह भी संगत नहीं है, कारण यह है कि साकारवाद में ये दो विकल्प अनुत्तीर्ण रहते हैं (१) प्रकाशता को आप सिर्फ नीलादिआकार ही मानेंगे या ( २ ) ग्राह्य रूप में भासित होने वाले नीलादि आकार 25 वाली मानेंगे ? ( १ ) प्रथम विकल्प में और भी दो विकल्प अनुत्तीर्ण रहते हैं (A) एक अंश में नीलादिआकार होती है या (B) सर्वांशों में ? A प्रथम विकल्प में किसी एक अंश में प्रकाशता को नीलादिआकारस्वरूप मानने पर एक ही प्रकाशता को निरंश नहीं, सांश मानना होगा, फलतः अनेकान्तवाद का विजय होगा । B यदि दूसरे विकल्प में प्रकाशता को सर्वांशो में नीलादि आकार मानेंगे तो प्रकाशता भी जड नीलादिस्वभावमय हो जाने से उस के विज्ञानस्वरूप का भंग प्रसक्त होगा, 30 क्योंकि जड नीलादिपदार्थ में प्रकाशरूपता संगत नहीं है । प्रकाशता (२) मूल विकल्पों में दूसरा विकल्प :- प्रकाशता को ग्राह्यरूप में भासित होनेवाले नीलादिआकारवाली - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - - www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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