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सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २
प्रत्यक्षारूढोऽभेदप्रतिभास: समस्ति । तथाहि - ग्राह्यरूपं स्तम्भाद्यनन्यव्यापृतत्वेन ग्राह्यतयाऽध्यक्षे प्रतिभाति, प्रकाशता तु स्तम्भादिकर्मणि व्यापृतत्वेन ग्राहकतया प्रतिभातीति न स्तम्भ-तत्संवेदनयोरभेदावभासोऽध्यक्षारूढोऽवभाति । न केवलं ग्राहकाकारोऽन्यव्यापृतत्वेन प्रतिभाति किन्त्वाह्लादादिस्वभावतया अहङ्कारास्पदश्च प्रतिभास-निश्चयाभ्यामवसीयते, तद्ग्राह्यस्तु तद्विपरीतत्वेन । न चाध्यक्षसिद्धभेदयोर्नीलतत्संवेदनयोः कुतश्चित् 5 प्रमाणादेकताऽवसातुं शक्येति न भेदप्रतिभासस्य बाधा । न च नीलादिरेव ज्ञानरूपः ' अहं नीलादि : ' इत्यनवगमात्। तेन ‘नीलाद्याकारैव प्रकाशता सा च बुद्धिरिति साकारता ज्ञानस्य' इति यदुक्तम् ( पृ०१९पं० ५ ) तदपि निरस्तं दृष्टव्यम् ।
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चाहते हैं तब तो इष्टापत्ति है। नीलादि अर्थ विनिर्मुक्त नीलादि के ज्ञान का उपलम्भ हमें भी इष्ट नहीं है। किन्तु यदि उपलम्भ के सहचार के बल पर आप नीलादि को ही ज्ञानमय कहना चाहते 10 हैं तो वह नितान्त गलत है, क्यों कि नीलादि बाह्य अर्थ जड है उस में ज्ञानमयत्व स्वभाव घट नहीं सकता। जड पदार्थ एवं ज्ञानमय पदार्थ के लक्षण एक-दूसरे से क्रोशों दूर रहने वाले है इसलिये जड एवं चेतना में अभेद नहीं हो सकता ।
** नील और नीलसंवेदन का भेद अबाधित
नील और प्रकाश (बोध) दोनों में भेद साधक 'नील का प्रकाश' इस उल्लेख के प्रति जो कहा 15 था कि (१९-१५) 'नील का बोध' ऐसा भिन्न विभक्तिवाला उल्लेख तो अभेद होने पर भी होता
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आया है, जैसे 'शिलापुत्रक का पिण्ड' इस उल्लेख में जो शिलापुत्रक है ( चन्दनादि घिसने का शिलापट्ट है) वही पिण्ड है, भिन्न नहीं है । - वह भी गलत कहा था । शिलापुत्रक के उदाहरण में तो प्रत्यक्षप्रमाण से अभेद सिद्ध है जो कि भेद का बाध करता है, जब कि प्रस्तुत 'नील का बोध' इस अनुभव में अभेद प्रत्यक्षसिद्ध नहीं है जो भिन्न विभक्तिवाले उल्लेख से सिद्ध होनेवाले भेद का बाध कर सके । 20 देखिये, ग्राह्य स्तम्भादि पदार्थ जब प्रतीत होते हैं तब अन्य किसी के ग्रहण में तत्पर हो इस ढंग
से प्रतीत न हो कर सिर्फ ग्राह्यरूप से ही प्रत्यक्ष में प्रतीत होता है । दूसरी ओर प्रकाशता (यानी बोध) कर्मापन्न स्तम्भादि को ग्रहण करने में तत्पर हो ऐसे भासित होने से ग्राहकस्वरूप से ही संविदित होता है। इस से यही फलित होता है कि स्तम्भ और उस के संवेदन में अभेदानुभव कहीं भी प्रत्यक्षसिद्ध नहीं है । ग्राहक के आकार में भासित होने वाली प्रकाशता में सिर्फ अन्य (स्तम्भादि) के ग्रहण में 25 तत्परता ही भासित नहीं होती, अपि तु उस में (प्रकाशता में) आह्लादस्वभावता एवं अहमाकारता
( अहंत्व ) भी भासित होते हैं। सिर्फ भासित ही नहीं होते किन्तु उत्तर काल में अनुव्यवसाय से निश्चित भी किये जाते हैं। ग्राह्य स्तम्भादि में न तो आह्लादकस्वभावता भासित होती है न अहंत्व। इस प्रकार नील एवं उस के संवेदन में भेद तो प्रत्यक्ष से स्फुट हो जाता है किन्तु उन दोनों का एकत्व तो किसी भी प्रमाण से उपलक्षित नहीं हो सकता । अत एव 'नील का बोध' इस अनुभूति में लक्षित 30 होने वाले भेद के अनुभव में कोई भी बाधा नहीं है ।
नीलादि को ही ज्ञानमय - ज्ञानस्वरूप - ज्ञानाभिन्न इसलिये नहीं मान सकते, चूँकि ज्ञानतत्त्व का 'मैं नीलादि हूँ' ऐसा भान कभी नहीं होता । निष्कर्ष यह निकला कि आप का (१९-२३) 'प्रकाशता
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