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________________ खण्ड - ४, गाथा - १ २५ यच्च 'अर्थापत्तेरप्रामाण्याद् नातस्तत्प्रतिपत्तिः' ( पृ० १६ - पं० ७ ) इति, तत् सिद्धसाधनमेव । यदपि ‘निराकारा मया बुद्धिः प्रतीयते' इति बुद्धेरप्यपरा बुद्धिर्ग्राहिका...' इत्याद्युक्तम् (पृ०१७-पं०५) तदप्यसंगतमेव। यतः स्वपरार्थग्राहकं बुद्धेः स्वरूपम्, तेन च रूपेण स्वसंविदि प्रतिभासमाना कथं शशशृङ्गादिवदव्यवस्थितस्वरूपा भवेत् ? यदपि ‘तदव्यतिरिक्ततया प्रतीयमाना न विकल्पेनाप्यपोद्धर्तुं शक्या' इति (पृ०१८-पं०२) तदप्यसंगतम्, ग्राह्यार्थस्वरूपविविक्ततया स्वरूपेण तत्प्रतिभासनस्य प्रतिपादितत्वात् । यदपि 'प्रकाशतारहितं नीलादिकं 5 नोपलभ्यते, तथोपलम्भे सर्वः सर्वदर्शी भवेद्' इति ( पृ० १८ - पं० ११) - अत्रापि यदि ज्ञानं विना नीलादिकं नोपलभ्यते इत्युच्यते तदा सिद्धसाध्यता, तदन्तरेण तदुपलम्भस्याऽनिष्टेः । अथ नीलमेव प्रकाशरूपमिति प्रतिपाद्यते तदयुक्तम्, नीलस्य जडतया प्रकाशरूपत्वानुपपत्तेः, परस्परपरिहारस्थितलक्षणतया जडाजडयोरेकत्वाऽयोगात् । यदपि ‘नीलस्य प्रकाश' इति व्यतिरेकः 'शिलापुत्रकस्य शरीरम्' इत्यादाविवाभेदेऽपि संभवति' इति 10 ( पृ० १९- पं० १) तदपि न सम्यक्; दृष्टान्ते हि प्रत्यक्षावगतोऽभेदो भेदप्रतिभासस्य बाधकः; न तु दान्तिके * अर्थापत्ति अर्थग्राहक ज्ञान की असाधक पहले जो आपने कहा था ( २८-१६) कि - 'अर्थ से अतिरिक्त कोई अर्थग्राहक निराकार ज्ञान अर्थापत्ति से सिद्ध नहीं है, क्योंकि खुद अर्थापत्ति ही अप्रमाण है उस से ज्ञान का प्रकाशन कैसे शक्य होगा ?" इस में तो हमें भी इष्टापत्ति है । कारण, हमारे मत में भी अर्थापत्ति कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है । * बुद्धि का स्वरूप है स्व - पर अर्थ को ग्रहण करना यह जो कहा था ( १७-२० ) 'मुझे निराकार अर्थबुद्धि अनुभूत होती है, ऐसे अनुभव में, बुद्धि और अर्थ को ग्रहण करने वाली एक अन्य बुद्धि माननी पडेगी, किन्तु निराकार बुद्धि (निराकार होने से) 'अर्थ का बोध' इस रूप में किस आकार से संयोजन कर के प्रतीत होगी ?... इत्यादि' जो कहा था वह भी संगत नहीं है। कारण, बुद्धि स्वयं अर्थाकार न होते हुए भी स्वभावतः स्व 20 और पर (यानी अर्थ ) को ग्रहण करती है जो कि उस का स्वरूप ही है । उसी स्वरूप से उस का ( बुद्धि का ) और ग्राह्य अर्थ का, उभयग्राहक संवेदन में स्फुट प्रतिभास भी होता है । उस के ऊपर शशसिंगतुल्य यानी अनिश्चित स्वरूप का आरोप कैसे हो सकता है ? - इसी संदर्भ में जो कहा था ( १८-१३) बुद्धि जब अर्थाभिन्न रूप से प्रतीत होती है तब कैसा भी विकल्प उस को (बुद्धि को ) अर्थ से पृथक् अपोद्धृत कर के दिखाने के लिये शक्तिमान नहीं 25 - यह कथन भी गलत है । ग्राह्य अर्थ के स्वरूप से ( जडत्व से) विलक्षण (चैतन्य) स्वरूप से बुद्धि का प्रतिभास होता है यह तथ्य पहले ( प्रथम खण्ड में ) कहा जा चुका है । *** नीलादि की ज्ञानमयता का निषेध यह पर्यनुयोग कि नहीं है क्योंकि नीलादि का होता तब तो सभी को चक्षु बन जायेगा । ( १८ - ३२) - Jain Educationa International — नीलादि में चक्षु आदि संनिकर्ष से प्रकाशता का आविर्भाव कहना शक्य उपलम्भ कभी भी प्रकाशता से विनिर्मुक्तरूप से नहीं होता, यदि वैसा 30 आदि होने से सारे जगत् का प्रकाश हो जाने पर जीवमात्र सर्वदर्शी इस पर्यनुयोग के ऊपर भी पर्यनुयोग आ पडेगा कि आप क्या कहना चाहते हैं ? नीलादि अर्थ के विना कभी भी नीलादि ज्ञान का उपलम्भ नहीं होता ऐसा यदि कहना So 15 For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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