SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ ध्यक्षतो ज्ञानस्याहमहमिकया प्रतीतेः । न चान्तः सुखादयो बहिश्च नीलादयः परिस्फुटवपुषः स्वसंविदिताः प्रतिभान्ति, न पुनस्तद्व्यतिरिक्तं निराकारं ज्ञानस्वरूपमर्थग्राहकमाभाति, सुखादेरर्थग्राहकत्वाऽयोगादिति वक्तव्यम्- यतो बाह्यं प्रति सुखादीनां नैवाऽस्माभिरपि ग्राहकत्वमभ्युपगम्यते। न हि सुखादयो भावनोपनेयजन्मानो बहिरर्थसंनिधिमन्तरेणाऽपि प्रादुर्भवन्तः पदार्थव्यक्तीनां नियमेनोद्योतकाः, स्ववपुःपर्यवसितस्वरूपत्वात् तेषाम् । 5 चक्षुरादिप्रभवास्तु संविदो बहिरर्थमुद्भासयन्त्यः स्पष्टावभासा अन्वयव्यतिरेकाभ्यां पृथगवसीयन्त इति पदार्थग्राहिण्यस्ता एवाभ्युपगमनीयाः। सुखादिवेदनं तु हृदि परिवर्त्तमानं बाह्यार्थसंविदः पृथगेव, न तत् बाह्यार्थग्राहकतयाऽभ्युपगमविषयः । तदेवं ग्राह्याद् व्यतिरेकेण निराकारज्ञानस्य स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धत्वादनुमानमपि तत्सत्त्वप्रतिपादकत्वेन प्रवर्त्तत एव विप्रतिपत्तिसद्भावे । अत एव ग्राह्य विषय (रूपादि) से पृथक् ग्राहक के लिबाश में, प्रत्यक्ष प्रमाण से, निराकार ज्ञान की 10 प्रतीति नहीं होती'- इस कथन का भंग पूर्वोक्त संदर्भ से हो जाता है। कारण, 'मैं नील को जानता हूँ' इस अनुभवसिद्ध प्रतीति में भीतर में ‘ग्राह्य नील से अतिरिक्त' एवं 'बाह्य नील वर्ण का ग्राहक' ऐसा ज्ञान, अपने आप अपने को पीछान लेने वाले प्रत्यक्ष भान में अहमहमिका से यानी स्पष्टरूप से भासित होता ही है। आशंका - भीतर में सुख-दुःखादि एवं बाहर नीलादि पदार्थ स्पष्ट आकार धारण करते हुए अपने 15 आप को पीछानते हुए लक्षित होते हैं - किन्तु नीलादि का ग्रहण करता हुआ कोई भी नील-सुखादि भिन्न निराकार ज्ञानात्मक पदार्थ भासित ही नहीं होता। कारण, सुख अपने को ग्रहण करता है न नीलादि को - इस स्थिति में निलादि से भिन्न सुखादि जिस तरह नीलादि को ग्रहण नहीं कर पाता तो ऐसे ही भिन्न ज्ञान भी कैसे उन को ग्रहण करेगा ? * सुखादि बाह्यार्थग्राहक नहीं होते, ज्ञान होता है * 20 समाधान :- ऐसी आशंका उचित नहीं। कारण, एक बात स्पष्ट है कि नीलादि बाह्य को सुखादि ग्रहण कर सकता है ऐसा तो हम लोग भी नहीं मानते। सुखादि तो मन की विचित्र भावनाओं के बल से जन्मलाभ करते हैं इसलिये बाह्य नीलादि अर्थ के संनिधान के विना भी उत्पन्न हो जाते हैं। अत न एव (तदुत्पत्ति सम्बन्ध न होने के कारण) आवश्यक नहीं है कि वे किसी वस्तु (बाह्य नीलादि) का प्रकाश करे। उन का स्वरूप सिर्फ अपने ही पिण्ड में तन्मय बना रहता है। दूसरी 25 ओर, यह तो अवश्य मानना होगा कि बाह्य पदार्थ का उद्भासन करने में व्यस्त नेत्रादिजन्य अनुभूतियाँ पदार्थ को ग्रहण करती हैं, क्योंकि अन्वय और व्यतिरेक सहचार से उन का स्पष्ट प्रतिभास होता है कि वे सुखादि से पृथग् अस्तित्व में हैं। हृदय में स्फूर्त होने वाला सुखादि का संवेदन तो नीलादि बाह्यार्थ संवेदन से पृथग् ही लक्षित होता है, अत एव उन का बाह्यार्थग्राहकरूप में स्वीकार नहीं हो सकता। 30 निष्कर्ष, उक्तरूप से नीलादि बाह्यार्थ से पृथक् ही उन के ग्राहकरूप में निराकार ज्ञान की सिद्धि अपने आप को पीछानने वाले प्रत्यक्ष से निर्बाध होती है। अत एव विवादप्रसंग में प्रत्यक्ष प्रसिद्धि के ठोस आधार पर अनुमान प्रमाण भी बाह्यार्थविषयक ज्ञान की सत्ता सिद्ध करने के लिये अकुंठित है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy