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________________ २३ खण्ड-४, गाथा-१ तिरेकेणानुपलम्भतः ‘तस्याऽसत्त्वात्'.. (पृ.१६-पं०२) इत्यत्र हेतुरसिद्धः, अहंकारास्पदस्य सुखादेर्ज्ञानविशेषस्याऽन्तः स्वसंवेदनप्रत्यक्षानुभूयमानस्य सत्त्वात् । न च स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धस्याप्यसत्त्वम् स्तम्भाद्याकारस्यापि ज्ञानस्याऽसत्त्वप्रसक्तेः। न हि तथाप्रतिभासव्यतिरेकेणापरमत्रापि सत्त्वनिबन्धनम्। न च ‘अहम्' इति प्रत्ययोऽन्तःस्प्रष्टव्यशरीराद्यालम्बनः, शरीरस्य सप्रतिघत्वेनाऽपरप्रत्यक्षविषयत्वेन चाऽज्ञानरूपतया मुख्याहंप्रत्ययविषयत्वानुपपत्तेः । ज्ञानस्यैवाप्रतिघानन्यवेद्यरूपस्यान्तर्मुखाकारस्य मुख्याह-प्रत्ययविषयत्वात् । 'अहं 5 कृशः' इत्यादिशरीरालम्बनस्य त्वहंप्रत्ययस्यौपचारिकत्वाद्, उपचारनिबन्धनत्वस्य च प्राक्' प्रतिपादितत्वात् । तेन 'निराकारस्य ज्ञानस्य स्वप्नेऽप्यसंवेदनाद् न प्रत्यक्षतो ग्राह्यव्यतिरिक्तं ग्राहकस्वरूपं प्रतिभाति' (पृ०१६-पं०५) इति प्रत्युक्तम् । 'नीलमहं वेद्मि' इति बाह्यनीलार्थग्राहकस्यान्तर्ग्राह्याद् व्यतिरिक्तस्य स्वसंवेदनापक्ष का खंडन करते हुए कहा गया था (पृ.१६-पं०१५) कि – 'प्रत्यक्ष से यह सिद्ध नहीं होता कि (निराकार) विज्ञान अर्थसंवेदक है क्योंकि प्रत्यक्ष के द्वारा स्तम्भ-कुम्भ-शरीरादि से पृथक् (निराकार) ज्ञानतत्त्व 10 का संवेदन नहीं होने से नि० ज्ञान असत् है।' - यहाँ हम कहेंगे कि शरीरादि से पृथक् ज्ञान असत् है यह हेतु ही असिद्ध है। (जिस के द्वारा आप विज्ञान के अर्थसंवेदकत्व का निह्नव करना चाहते हैं।) कारण, शरीरादि से पृथक् जिस का 'अहं' इस आकार से भीतर में अपने खुद के प्रत्यक्षात्मक में सुखादिगर्भित अनुभव स्वयंसिद्ध है उस की सत्ता का निलव नहीं हो सकता। जो प्रत्यक्षात्मक अपने खुद के संवेदन से अनुभवसिद्ध हो उस के असत्त्व की घोषणा उचित नहीं है, अन्यथा 15 आप के माने हुए स्तम्भादिआकार ज्ञान का भी असत्त्व घोषित करना पडेगा। संवेदनात्मक प्रतीति के बिना अन्य कोई साधन तो साकार ज्ञान की सत्ता सिद्ध करने के लिये, आप के पास भी नहीं है। * अहमाकारप्रतीति शरीरविषयक नहीं है * ऐसा नहीं है कि 'अहम्' आकार प्रतीति, अंतरंग भाग से स्पर्श से वेद्य शरीरादि को ही विषय करती हो। ऐसा नहीं होने का कारण सुनिये- शरीर को कई प्रत्याघात होते हैं, ज्ञान के लिये कोई 20 पत्थरादि का प्रत्याघात नहीं होता। उपरांत, शरीर अन्य लोगों के प्रत्यक्ष का विषय बनता है जब कि ज्ञान सिर्फ स्व से ही संवेद्य होता है, अन्य किसी को अपने ज्ञान का संवेदन नहीं होता। तथा, शरीर अचेतन होने से अज्ञान रूप होता है जब कि ज्ञान तो चैतन्यशील है। शरीर का भान र्बा होता है जब कि ज्ञान का भान हमेशा अन्तर्मुख आकार से ही होता है। इस से यह फलित होता है कि निरुपचरित 'अहम्' आकार प्रतीति का विषयत्व शरीर में नहीं घटता, वह ज्ञान में ही घट 25 सकता है। हाँ, कभी कभी 'मैं पतला हूँ' ऐसी अहमाकार प्रतीति का विषयत्व शरीर में भासित होता है किन्तु वह तो गौण है, उपचरित है, मुख्य रूप से नहीं है। अनादिकालीन वासना ही उस का मूल है वह पहले नास्तिकमत के प्रतिकार में कहा जा चुका है। * ग्राह्य से भिन्न, ग्राहकज्ञान के निषेध का निरसन * पहले जो कहा है (पृ.१६-पं०२४) कि - ‘सपने में भी निराकार ज्ञान का अनुभव नहीं होता, 30 1. प्रथमखंडे पृ०३२५ मध्ये पंचमादिपंक्तयोऽवलोकनीया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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