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खण्ड-४, गाथा- ४३, आत्म- केवल पर्यायविमर्श
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केवलज्ञानस्य कथंचिदात्माऽव्यतिरेकाद् आत्मनो वा केवलाऽव्यतिरेकात् कथंचिदेकत्वं तयोरित्याह
(मूलम् ) संखेज्जमसंखेज्जं अणंतकप्पं च केवलं गाणं ।
( व्याख्या) आत्मन एकत्वात् कथञ्चित् तदव्यतिरिक्तं केवलमप्येकम् केवलस्य वा ज्ञान-दर्शनरूपतया द्विरूपत्वात् तदव्यतिरिक्त आत्माऽपि द्विरूपः असंख्येयप्रदेशात्मकत्वादात्मनः केवलमप्यसंख्येयम् अनन्तार्थ - 5 विषयतया केवलस्याऽनन्तत्वादात्माप्यनन्तः । एवं राग-द्वेष- मोहा अन्येऽपि जीवपर्यायाः छद्मस्थावस्थाभाविनः संख्येयाऽसंख्येयाऽनन्तप्रकारा आलम्ब्यभेदात् तदात्मकत्वात् संसार्यात्माऽपि तद्वत् तथैव स्यात् । सोमिलब्राह्मणप्रश्न - प्रतिवचने चागमे एतदर्थप्रतिपादकं च सूत्रम्- 'एगे भवं दुवे भवं' इत्यादि अ (भग॰श०१८, उ.१०, सू० ६४७ ) इत्यादि प्रकृतार्थसंवादि सिद्धम् । रागादीनां चैकाद्यनन्तभेदत्वमात्मपर्यायत्वात्। यो ह्यात्मपर्यायः स एकाद्यनन्तभेदो यथा केवलावबोधः, तथा च रागादय:, इति स्थित्युत्पत्तिनिरोधात्मकत्वमर्हत्यपि 10 निर्बाध अनुभव होता हो' तो विशेषवादी भी कहेगा कि सामान्यप्रतीति भी मिथ्या है . . इत्यादि प्रतिपादन के द्वारा सामान्याभाव भी प्रसक्त होगा । ।४२ ।।
तह राग-दोस- मोहा अण्णे वि य जीवपज्जाया । ।४३ ।।
[ केवलज्ञान और आत्मा का अन्योन्य कथंचिद् अभेद ]
अवतरणिका :- केवलज्ञान आत्मा से सर्वथा (यानी कथंचित्) जुदा नहीं है, अथवा आत्मा केवलज्ञान से सर्वथा (यानी कथंचित्) जुदा नहीं है, इस प्रकार उन दोनों के एकत्व को दिखा रहे हैं गाथार्थ :- केवलज्ञान संख्यात असंख्यात
अनन्तसंख्यक भी है। तथा दूसरे भी ( = ज्ञानादि
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से अन्य) राग-द्वेष- मोह जीवपर्याय हैं । । ४३ ।।
व्याख्यार्थ :- केवलज्ञान एक है क्योंकि आत्मा एक है और उस से वह जुदा नहीं है । अथवा, केवलज्ञान ज्ञान - दर्शन उभयरूप होने से द्विरूप है और उस जुदा न होने से आत्मा भी द्विरूप
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। आत्मा असंख्यप्रदेशात्मक होने से, आत्माभिन्न केवल असंख्यरूप भी है। तथा आत्मा अनन्तरूप 20 भी है क्योंकि केवलज्ञान से वह जुदा नहीं है और केवलज्ञान अनन्तअर्थविषयक होने से अनन्तरूप है । आत्मा की छद्मस्थावस्था को लक्ष में रख कर कहें तो इस तरह भी आत्मा अनन्त है क्योंकि राग-द्वेष-मोह भी छद्मस्थावस्था में आत्मा के ही विकृत पर्याय ही हैं । रागादि के विषयों के संख्यअसंख्य - अनन्तभेद होने से रागादि पर्यायों के भी संख्य- असंख्य - अनन्त भेद हैं, इन विकारों से अभिन्न होने से संसारि आत्मा भी संख्य- असंख्य - अनन्त है ऐसा कहने में कुछ भी गलत नहीं है। श्री भगवतीसूत्र 25 सोमिल ब्राह्मण के प्रश्नोत्तर प्रसंग में इसी (उपरोक्त ) अर्थ के सूचक सूत्र हैं [ श्री भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र का भावार्थ ] सूत्र का भावार्थ यह है “सौमिल ब्राह्मण भगवान महावीर से पूछते हैं हैं ? दो हैं ? अक्षय हैं ? अव्यय हैं ? अवस्थित हैं अनेक भूतभावभव्य हैं ? में भगवान् कहते हैं “हे सोमिल ! मैं एक हूँ... यावत् अनेकभूतभावभव्य भी हूँ । ”
आगम
पूछता है भंते ! ऐसा क्यों कहते हैं कि 'मैं एक हूँ... यावत् अनेकभूतभावभव्य हूँ ?' भगवान
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भंते ! आप एक
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इस के उत्तर सोमिल पुनः 30
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