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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-द्वितीयकाण्ड-चतुर्थखण्ड समाप्त सिद्धमिति यत् परेणोक्तम्- “अनेकान्तात्मकत्वाभावेऽपि केवलिनि सत्त्वात्, यत् सत् तत् सर्वमनेकान्तात्मकमिति प्रतिपादकस्य शासनस्याऽव्यापकत्वात् कुसमयविशासित्वं तस्याऽसिद्धम्" - ( ) इति तत् प्रत्युक्तं दृष्टव्यम् ।।४३।। (इति तत्त्वबोधविधायिन्यां सम्मतिटीकायां द्वितीयं काण्डम्) 5 उत्तर में हेतु कहते हैं – “हे सोमिल ! मैं द्रव्यार्थता (की अपेक्षा) से एक हूँ, ज्ञान-दर्शनार्थता (की अपेक्षा) से द्विविध हूँ, प्रदेशार्थता (की अपेक्षा) से मैं अक्षत भी हूँ, अव्यय भी हूँ, अवस्थित भी हूँ। उपयोगार्थता (की अपेक्षा) से मैं अनेकभूतभावभव्य भी हूँ। इस हेतु से कहता हूँ कि मैं एक हूँ.. यावत् अनेकभूतभावभव्य भी हूँ।” इन सूत्रों से, ४३गाथाप्रतिपादित अर्थ का संवाद सिद्ध होता है। प्रश्न :- रागादि के एक से लेकर अनन्त भेद कैसे ? उत्तर :- आत्मा के पर्याय हैं इसलिये। 10 व्याप्ति है कि जो भी आत्मा के पर्याय होते हैं वे एकादि-अनन्तभेदशाली होते हैं जैसे केवलावबोध । रागादि भी (छद्मस्थावस्था में) आत्मा के पर्याय हैं। [श्री अरिहन्तों में कुसमय-विशासकत्व युक्तिसंगत ] इस प्रकार जब अरिहंत की आत्मा भी (प्रथम काण्ड - १२ वी गाथा में कहा है कि) स्थितिउत्पत्ति-व्यय-त्रितयात्मक है यह सिद्ध होता है तब जो अन्य किसीने कहा है कि - "सर्वज्ञ केवलि कसमयविशासकत्व (जो सन्मतिप्रकरण प्रथम काण्ड की प्रथम गाथा में अर्थतः) कहा गया है वह असिद्ध है - क्योंकि खुद केवलि में ही अनेकान्तात्मकता नहीं है। फिर भी आपने सत्त्व हेतु को अनेकान्तव्याप्य दिखाने के लिये कह दिया है कि जो भी सत् होता है वह अनेकान्तात्मक होता है - इस प्रकार का शासन (= विधान) अरिहंत केवली में अनेकान्तात्मकता के न होने से अव्याप्तिदोषग्रस्त है – इसीलिये केवली में अथवा उस के शासन में कुसमयविशासकत्व असिद्ध है" - ऐसा जो अन्य 20 किसीने कहा है वह निरस्त हो जाता है, क्योंकि उपरोक्त प्रकार से केवली में अनेकान्तरूपता की सिद्धि विस्तार से हमने कर के दिखा दिया है, अतः उक्त व्याप्ति भी संगत ही है, अतः कहीं भी एकान्तरूपता टीक न पाने से सर्व-अनेकान्तरूपताप्रतिपादक जिनों का शासन, एकान्तवाद प्ररूपक कुसिद्धान्तों का विशासक (= भंजक) (प्रथमकाण्ड गाथा-१) निर्बाध सिद्ध होता है।।४३ ।। इस प्रकार अमदावाद समीप अमीयापुर स्थित तपोवन संस्कारपीठ मध्ये श्री सिद्धसेनदिवाकर 25 सूरिविरचित श्री सन्मतितर्कप्रकरण-द्वितीय काण्डे श्री अभयदेवसूरिविरचित तत्त्वबोधविधायिनी टीका का आव्जयसुंदरसूरिकृत हिन्दीविवेचन पूर्ण हुआ। भद्रमस्तु श्री जिनशासनस्य । फागुन वदि ८ वि०सं० २०६४ तपोवन 4. श्रीभगवत्यंगे सम्पूर्णमिदं सूत्रम्- एगे भवं दुवे भवं अक्खए भवं अव्वए भवं अवट्ठिए भवं अणेगभूयभावभविए भवं ? सोमिला ! एगे वि अहं जाव अणेगभूयभावभविए वि अहं । से केणद्वेण भंते ! एवं वुच्चइ जाव- भविए वि अहं ? सोमिला ! दव्वट्ठयाए एगे अहं, नाण-दसणट्ठयाए दुविहे अहं, पएसट्टयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं, उवयोगट्ठयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं। से तेणटेणं जाव- भविए वि अहं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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