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________________ ५०४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ केवलं कथंचित् सादि कथंचिदनादि कथंचित् सपर्यवसानं कथंचिदपर्यवसानं सत्त्वाद् आत्मवद् इति स्थितम् ।।४१ ।। न द्रव्यं पर्यायेभ्यो भिन्नमेव - इत्याह(मूलम्) जीवो अणाइनिहणो 'जीव' त्ति य णियमओ ण वत्तव्यो। जं पुरिसाउयजीवो देवाउयजीवियविसिट्ठो।।४२।। (व्याख्या) जीवोऽनादिनिधनो 'जीव' एव विशेषविकल इति नियमतो न वक्तव्यम् यतः पुरुषायुष्कजीवो देवायुष्कजीवाद् विशिष्टो । 'जीव एव' इति त्वभेदे पुरुषजीव... इत्यादिभेदो न भवेत्, केवलस्य सामान्यस्य विशेषप्रत्ययाभिधानाऽनिबन्धनत्वाद् । निर्निमित्तस्यापि विशेषप्रत्ययाभिधानस्य संभवे सामान्यप्रत्ययाभिधानस्यापि निर्निमित्तस्यैव भावात् तन्निबन्धनसामान्याभ्युपगमोऽप्ययुक्तः स्यादिति सर्वाभावः। न च विशेषप्रत्ययस्य 10 बाधारहितस्यापि मिथ्यात्वम्, इतरत्रापि तत्प्रसक्तेरिति प्रतिपादनात् ।।४२।। से अथवा केवलीस्वरूप से भी अन्योन्य अभिन्न होने के कारण अनादिअनन्तत्व स्वीकार करने योग्य है। क्षण-क्षण में नये नये पर्यायों में अनुवर्त्तमान मिट्टी द्रव्य की प्रत्यक्षानुभूति होती है अतः दृष्टान्त असिद्ध नहीं है। इसी दृष्टान्तसाम्य के आधार पर कह सकते हैं कि केवलज्ञान कथंचित् सादि, कथंचिद् अनादि; कथंचिद् सपर्यवसान, कथंचिद् अपर्यवसान है क्योंकि सत् है जैसे आत्मा ।।४१ ।। [ द्रव्य-पर्याय का कथंचिद् भेद मान्य ] अवतरणिका :- द्रव्य पर्यायों से एकान्त भिन्न नहीं होता यह कहते हैं - गाथार्थ :- अनादिनिधन जीव 'जीव' ही है ऐसा नियम भाव नहीं दिखाना। यतः पुरुषायुषवाला जीव देवायुषवाले जीव से (कुछ) भिन्न होता है।।४२ ।। व्याख्यार्थ :- अनादिनिधन जीव ‘जीव ही है' यानी किसी भी विशेष से रहित है ऐसा नियमभाववचन 20 बोलने के लायक नहीं है, क्योंकि पुरुषमनुष्यायुषभोगी जीव भाविदेवायुषभोगी जीव से कुछ विशेषता (भेद) रखता है। तात्पर्य यह है कि - अविशिष्टरूप से 'यह जीव ही है' इस प्रकार भेदमुक्त भेदोच्छेदक यानी विशेषावस्था का व्यवच्छेदक अर्थ बताया जाय तो पुरुष (मनुष्य) जीव, देवजीव इत्यादि भेद यानी विशेष की संभावना ही रद्दबातल हो जायेगी। यदि कहें कि – 'देव' इत्यादि विशेषप्रतीति या शब्दव्यवहार 25 का मूल भी केवल जीवत्व सामान्य ही है - तो ऐसा नहीं हो सकता। यदि कहें कि - विशेष प्रतीति या शब्दव्यवहार का ‘स्वतन्त्र विशेष' जैसा कोई निमित्त ही नहीं है। (यदि है तो वह सामान्य ही है।) - तो दूसरा कोई कह सकेगा कि 'जीव' इस प्रकार सामान्यप्रतीति या शब्दव्यवहार का भी कोई ‘सामान्य' निमित्त नहीं है। (जो कुछ निमित्त है वह 'विशेष' ही है।) फलतः सामान्यप्रतीति/ शब्दव्यवहार के निमित्तभूत ‘सामान्य' का अंगीकार अयोग्य ठहरेगा। (इसी तरह 'विशेष' का भी अंगीकार 30 अयोग्य ठहरेगा) नतीजा यह होगा कि सामान्य-विशेष कुछ भी नहीं होने पर वस्तुमात्र का अभाव (शून्यवाद) प्रसक्त होगा। यदि सामान्यवादी कह दे कि - "विशेषप्रतीति मिथ्या है भले ही उस का 15 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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