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खण्ड-४, गाथा-४०/४१, केवलउत्पत्ति-विनाशविमर्श तद्विकलस्य वा सामान्यस्याऽसंभवात् संशय-विरोध-वैयधिकरण्याऽनवस्थोभयदोषादीनामनेकान्तवादे च प्रागेव निरस्तत्वात् ।।४०।। दृष्टान्तं प्रसाध्य दार्टान्तिकयोजनायाह(मूलम्) एवं जीवद्दव्वं अणाइणिहणमविसेसियं जम्हा।
रायसरिसो उ केवलिपज्जाओ तस्स सविसेसो।।४१।। 5 (व्याख्या) एवमनन्तरोक्तदृष्टान्तवद् जीवद्रव्यमनादिनिधनमविशेषितभव्यजीवरूपं सामान्यं यतः, राजत्वपर्यायसदृशः केवलित्वपर्यायः तस्य तथाभूतजीवद्रव्यस्य विशेषः। तस्मात् तेन रूपेण जीवद्रव्यसामान्यस्यापि कथंचिदुत्पत्तेः सामान्यमप्युत्पन्नं, प्राक्तनरूपस्य विगमात् सामान्यमपि तदभिन्नं कथंचिद् विगतं, पूर्वोत्तरपिण्ड-घटपर्यायपरित्यागोपादानप्रवृत्तैकमृद्रव्यवत्। केवलरूपतया जीवरूपतया वा अनादिनिधनत्वाद् नित्यं द्रव्यमभ्युपगन्तव्यम् । प्रतिक्षणभाविपर्यायानुस्यूतस्य च मृद्रव्यस्याध्यक्षतोऽनुभूतेर्न दृष्टान्ताऽसिद्धिः, तस्मात् 10 न मान कर द्रव्य (सामान्य) का पर्याय के साथ या पर्याय का द्रव्य के साथ एकान्तभेद या एकान्त अभेद ही माना जाय तो दोनों में से एक की भी प्रतिष्ठा नहीं रहेगी। कारण, द्रव्यरूप आश्रय के विना निराधार पर्याय रहेगा कहाँ ? और पर्याय (विशेष) के विना अकेला सामान्य (द्रव्य) कौन से काम में आयेगा ?
इस तरह एकानेकात्मकता, अन्योन्यात्मकता या ज्ञानात्मा दर्शनात्मा में भेदाभेदात्मकता को मानना 15 यही अनेकान्त सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के ऊपर जो संशय, विरोध, व्यधिकरणता , अनवस्था, उभयपक्षीय आपत्ति आदि दोषों का आरोपण किया जाता है उन सभी का पूर्वग्रन्थ में (प्रथम काण्ड, द्वीतीय खंड में अन्तिम गाथाओं के विवरण में) निरसन किया जा चुका है।।४०।।
[ राजदृष्टान्त का जीव-केवलिपर्याय में उपनय ] अवतरणिका :- दृष्टान्त राजा में अनेकान्त से द्रव्य-पर्याय का भेदाभेद दिखाकर अब प्रस्तुत जीव- 20 केवलीपर्याय में उस की संगति कर दिखाते हैं - ____गाथार्थ :- उक्त प्रकार से जीव द्रव्य भी सामान्यरूप से अनादि-अनन्त है। राजदृष्टान्त तुल्य यहाँ विशेषरूप से उसी का केवलीपर्याय है।।४१ ।। ___ व्याख्यार्थ :- पूर्वोक्त राजपर्याय के दृष्टान्त की तरह, विशेष को गौण कर के सामान्य को मुख्य करने पर, यानी सामान्य से किसी भी भव्यजीव को ले कर कह सकते हैं कि जीवद्रव्य अनादि- 25 अनन्त है। अत एव उसी भव्य जीवद्रव्य में विशेष की मुख्यता कर के कह सकते हैं कि राजापर्यायतुल्य केवलित्वपर्याय उस जीवद्रव्य का विशेषरूप है, क्योंकि वहाँ भव्यजीवद्रव्य की केवलीपर्यायरूप से कथंचिद उत्पत्ति होना मान्य है। अर्थात् सामान्य ऐसा जीवद्रव्य भी केवलिपर्याय विशेषरूप से उत्पन्न हो सकता है। उपरांत यह भी कहा जा सकता है कि सामान्यस्वरूप जीवद्रव्य का नाश हुआ, क्योंकि केवलिपर्यायविशेषरूप से जीव की नयी उत्पत्ति हुई है। उदाहरण :- एक ही मिट्टी द्रव्य पूर्वकालीन 30 पिण्ड (सामान्यस्वरूप) रूप का परित्याग कर के घट पर्याय को गृहीत करता है। इसी तरह जीवद्रव्यस्वरूप
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