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________________ खण्ड-४, गाथा-३०, अवग्रहदर्शनात्मतानिषेध ४९५ वबोधतात्त्विकरूपत्वात् तस्य । तच्च तस्य स्वरूपं केवलज्ञानदर्शनावरणकर्मक्षयाविर्भूतं करण-क्रमव्यवधानातिवर्ति सकललोकालोकविषयत्रिकालस्वभावपरिणामभेदानन्तपदार्थयुगपत्सामान्यविशेषसाक्षात्करणप्रवृत्तं केवलज्ञानं केवलदर्शनम् इति च व्यपदिश्यते। तेन- “अवग्रहरूप आभिनिबोधो दर्शनम् स एव चेहादिरूपो विशेषग्राहको ज्ञानम् तद्व्यतिरिक्तस्यापरस्य ग्राहकस्याभावात्। तस्यैवैकस्य तथाग्रहणात् तथाव्यपदेशाद् उत्फण-विफणावस्थासर्पद्रव्यवत्। 5 ततस्तयोरवस्थयोरव्यतिरेकात् तस्य च तद्रूपत्वादेक एवाभिनिबोधो दर्शनं मतिज्ञानं चाभिधीयते इतिसूत्रकृतोऽभिप्रायः।” – इति यत् कैश्चिद् व्याख्यातं तदसङ्गतं लक्ष्यते, आगमविरोधात् युक्तिविरोधाच्च । न ह्येकान्ततोऽभेदे पूर्वमवग्रहो दर्शनं पश्चाद् ईहादिकं ज्ञानम्, तयोश्च तत्रान्तर्भाव इति शक्यमभिधातुम्, कथंचिद्भेदनिबन्धनत्वादस्य। आत्मरूपतया तु तयोरभेदोऽभ्युपगम्यत एव। न चैकस्यैव मतिज्ञानस्योअपने अपने प्रदेशावरणों के (कर्म के) क्षयोपशम से ही प्राप्त करता है। किन्तु विशेष ध्यान देने 10 योग्य तथ्य यह है कि अनन्तज्ञेयज्ञानस्वभावी (परिपूर्णज्ञानस्वभावी) आत्मा का यह (छाद्मस्थिक उपयोग) स्वरूप पारमार्थिक नहीं कहा जा सकता क्योंकि ये सब खण्डित ज्ञानपरिणाम है, अखण्ड नहीं है। (८-९) केवलज्ञान-केवलदर्शन :- आत्मा का अखण्ड पारमार्थिकस्वरूप तो ऐसा तात्त्विक केवलावबोधरूप होता है जो सामान्य-विशेषात्मक सकलवस्तु स्पर्शी होता है एवं एक साथ परिच्छेद करनेवाले (ज्ञानदर्शन) रूप उभयात्मक एक अवबोध (= केवलावबोध) रूप ही होता है। आत्मा का ऐसा केवलावबोध 15 स्वरूप, केवलज्ञान-दर्शनावरणरूप कर्मद्वय के क्षय से उत्पन्न होता है। विना किसी करण (इन्द्रिय) के होता है, क्रममुक्त होता है एवं किसी भी व्यवधान (देश-काल-स्वभाव व्यवधान) से मुक्त होता है। सम्पूर्ण लोक एवं अलोक में रहे हुए जितने भी ज्ञेय हैं उन के त्रैकालिक जितने भी स्वभावपर्याय हैं (जो कि अनन्त ही हैं) ऐसे अनन्त पदार्थों का सामान्य-विशेषोभय प्रकार से साक्षात्कार कर लेने वाला होता है। इसी को केवलज्ञान और केवलदर्शन कहा जाता है। 20 [सूत्रकार के अभिप्राय का अन्यथा व्याख्यान अनचित । उक्त विवरण से यह समझने में देर नहीं होगी कि अभी जो किसीने आचार्याभिप्राय का मनमाने ढंग से फलितार्थ निकाला है वह कितना गलत है - वह गलत अभिप्राय अभी दिखा रहे हैं - “आभिनिबोध एक अवबोध है, उस का एक रूप अवग्रह है वही 'दर्शन' है। उसी का दूसरा रूप ईहा-अपाय-धारणा है वही विशेषग्राही होने से 'ज्ञान' है। दोनों अवस्थाओं में ग्राहक तो आभिनिबोध 25 एक ही है, और कोई ग्राहक नहीं है। वही एक आभिनिबोध दोनों प्रकार से ग्रहण करनेवाला है। इसी लिये उस का दो रूपों से (दर्शन-ज्ञान रूपों से) व्यवहार होता है। जैसे एक ही सर्प कभी फण को खोलता है कभी मुकुलित करता है दोनों अवस्था में सर्पद्रव्य एक होता है। सर्प से दो उत्फण-विफणावस्थाएँ भिन्न नहीं होती। सर्प भी उन दो अवस्थाओं में एकरूप अनुवृत्त है। इसी तरह एक ही आभिनिबोध अवग्रहावस्था में 'दर्शन' और इहादि अवस्था में ‘मतिज्ञान' कहा जाता है। सूत्रकार 30 सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी का ऐसा अभिप्राय है।" - व्याख्याकार कहते हैं कि ऐसा अभिप्राय व्याख्यान गलत है क्योंकि उसमें आगम का विरोध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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