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________________ ४९६ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ भयमध्यपातादुभयव्यपदेशः, अवग्रहस्य दर्शनत्वे 'अवग्रहादिधारणापर्यन्तं मतिज्ञानम्' इत्यस्य व्याहतेः। तस्य वाऽदर्शनत्वे 'अवग्रहमात्रं दर्शनम्' इत्यस्य विरोधात् । आगमविरोधश्च तद्व्यतिरेकेण दर्शनानभ्युपगमे । तदभ्युपगमे वाऽष्टाविंशतिमतिज्ञानव्यतिरिक्तदर्शनाभ्युपगमात् कुतो ज्ञानमेव दर्शनं छद्मस्थावस्थायाम् ? केवल्यवस्थायां तु क्षीणावरणस्याऽऽत्मनो नित्योपयुक्तत्वात् सदैव दर्शनावस्था वर्तमानपरिणतेर्वस्तुनोऽवगमरूपाया: प्राक् तथाभूतानवबोधरूपत्वाऽसंभवात्, तथाभूतज्ञानविकलावस्थासंभवे वा प्रागितरपुरुषाऽविशेषप्रसङ्गात् । और युक्ति का भी विरोध सीर उठाता है। पहले युक्ति विरोध कैसे हैं यह समझ लिजिये- अवस्था (दर्शन-ज्ञान) और अवस्थावान् (आभिनिबोध) ऐसा जो यहाँ दोनों का अभेद दर्शाया है वह एकान्तअभेद होने पर नहीं घट सकता क्योंकि एकान्त अभेद होने पर ‘पहले दर्शन और बाद में ज्ञान (इस तरह भेद द्वारा निरूपण) और उन दोनों का एक में अन्तर्भाव' ऐसा कथन ही अशक्य है। दो अवस्था 10 और अवस्थावान् में सर्वथा नहीं किन्तु कथंचिद् आपेक्षिक भेद के होने पर ही वैसा कथन उचित है। हाँ. दर्शन और ज्ञान दोनों एक आभिनिबोध की नहीं किन्त एक आत्मा की दो अवस्था मान ले तो दोनों ही एकात्मरूप होने से उन दोनों का अभेद तो स्वीकार्य ही है। वही तो हमारा मत है। यदि कहा जाय - ‘मतिज्ञान तो एक ही है किन्तु अवग्रहात्मक दर्शन और ईहादिरूप ज्ञान 15 दोनों में उस का प्रवेश व्याख्यानुसार होता है इस लिये उसमें दर्शन-ज्ञान उभय व्यवहार न्यायोचित है' - तो यह गलत है क्योंकि अवग्रह यदि दर्शन रूप माना जाय तो 'अवग्रह से ले कर धारणा तक चारों भेद मतिज्ञानरूप है' इस शास्त्रवचन का व्याघात होगा। यदि मतिज्ञान को दर्शन में शामिल नहीं करते तो उस के एक भेद स्वरूप 'अवग्रह' को दर्शन (गाथा २१) कहने पर विरोध प्राप्त होगा। [ दर्शन-मतिज्ञान का अभेद मानने पर आगमविरोध ] 20 अवग्रहरूप अभिनिबोध दर्शन है... इत्यादि जो आचार्याभिप्राय के रूप में कहा गया था - उस में आगमविरोध होने का कहा गया था, तो युक्तिविरोध के प्रदर्शन के साथ साथ ज्ञान से जुदा दर्शन को न मानने में आगमविरोध भी प्रसक्त है - (शास्त्रों में ज्ञान-दर्शन अलग दिखाये हैं इस लिये स्पष्ट ही आगमविरोध है।) ज्ञान से दर्शन को जुदा मान ले तब तो मतिज्ञान के २८ भेद से जुदा ही दर्शन मान्य हो जाने से, छद्मस्थावस्था में ज्ञान एवं दर्शन को एक कैसे माना जाय ? हाँ, केवली अवस्था में दोनों को एक मान सकते हैं क्योंकि दोनों के आवरणों का क्षय हो जाने से केवलि आत्मा हर हमेश एक साथ उभय में उपयुक्त रहता है वह दोनों के ऐक्य को सूचित करता है। मतलब, ज्ञान की तरह दर्शनावस्था भी सदा निरन्तर जारी है। केवली अवस्था तो वर्तमानपरिणामविशिष्ट वस्तु की निरूपिका है, मतलब कि ज्ञानमयावस्थारूप है। अब ऐसा तो संभव नहीं है कि केवली को जैसी ज्ञानमय अवस्था किसी एक विवक्षित क्षण में जो है वह उस के पूर्व 30 क्षण में तथाविध वस्तु के अवबोधात्मक नहीं थी। यदि पूर्वक्षण में तथाविध वस्तु के ज्ञान से शून्य पूर्वावस्था की कल्पना सच मानेंगे तो उस पूर्व क्षण में केवलीभिन्न सामान्य मनुष्य और केवली में फर्क क्या रहेगा ? दोनों ही तथाविवक्षित ज्ञानमयावस्था से तुल्यरूप से शून्य है। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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