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________________ ४९४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ भावेन्द्रियालोकमतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमादिसामग्रीप्रभवरूपादिविषयग्रहणपरिणतिश्चात्मनोऽवग्रहादिरूपा ‘मतिज्ञान'शब्दवाच्यतामश्नुते। श्रुतज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम-वाक्यश्रवणादि-सामग्रीविशेषनिमित्तप्रादुर्भूतो वाक्यार्थपरिणतिग्रहणस्वभावो वाक्याऽश्रवणनिमित्तो वाऽऽत्मनः ‘श्रुतज्ञान मिति शब्दाभिधेयतामाप्नोति। रूपिद्रव्यग्रहणपरिणतिविशेषस्तु जीवस्य भव-गुणप्रत्ययावधिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमप्रादुर्भूतो लोचनादिबाह्यनिमित्तनिरपेक्षः ‘अवधिज्ञानम्' इति व्यपदिश्यते तज्ज्ञैः। अवधिदर्शनावरणकर्मक्षयोपशमप्रादुर्भूतस्तु स एव तद्व्यसामान्यपर्यालोचनस्वभावोऽवधिदर्शनव्यपदेशभाग् भवति। ___ अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वतिसकलमनोविकल्पग्रहणपरिणति: मनःपर्यायज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमादिविशिष्टसामग्रीसमुत्पादिता चक्षुरादिकरणनिरपेक्षस्यात्मनः ‘मनःपर्यायज्ञानम्' इति वदन्ति विद्वांसः। छाद्मस्थिको पयोगं चात्मा स्वप्रदेशावरणक्षयोपशमद्वारेण प्रतिपद्यते। न त्वनन्तज्ञेयज्ञानस्वभावस्यात्मनः एतदेव खण्डश:10 प्रतिपत्ति-लक्षणं पारमार्थिक रूपम्, सामान्यविशेषात्मकवस्तुविस्तरव्यापि युगपत्परिच्छेदस्वभावद्वयात्मकैककेवला से उत्पन्न होने वाले अर्थावग्रहादिभेदयुक्त मतिज्ञान उपयोग की पूर्वकालीन जो आत्मा की ज्ञानोपयोगाभिमुख यानी निश्चितस्वरूपवाली, आत्मप्रबोधरूप, एवं जिस में ग्राह्य-ग्राहकभावपरिणति का स्पष्टावभास नहीं होता ऐसी जो आत्मा की अवस्था है वही चक्षुजन्य चक्षुदर्शन संज्ञक एवं मनोजन्य अचक्षुदर्शन संज्ञक होती है। 15 (३) मतिज्ञान :- द्रव्येन्द्रिय-भावेन्द्रिय-प्रकाश-मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम इत्यादि सामग्री से जन्य ऐसी आत्मा की रूपादिविषयग्रहणपरिणति जो अवग्रह-इहा-अपाय-धारणारूप है उसका निर्देश मतिज्ञानशब्द से होता है। (४) श्रुतज्ञान :- श्रुतज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम तथा वाक्यश्रवणादि सामग्रीविशेषरूप निमित्त से उत्पन्न होने वाला आत्मा का वाक्यार्थग्रहणपरिणामात्मक स्वभाव श्रुतज्ञानशब्द का वाच्यार्थ है - कभी वाक्यश्रवण 20 के विना भी वह होता है। (५) अवधिज्ञान :- भवनिमित्तक अथवा संयमादिगुणनिमित्तक एवं अवधिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से जन्य नेत्रादिबाह्यनिमित्त निरपेक्ष ऐसी जो जीव की रूपिद्रव्यग्रहणपरिणति है वही 'अवधिज्ञान' शब्दप्रयोग की आधारशीला है। यह तज्ज्ञों का कथन है। (६) अवधिदर्शन :- अवधिदर्शनावरणकर्मक्षयोपशम से जन्य ऐसी आत्मा की रूपिद्रव्यसामान्यपर्यालोचनात्मक 25 परिणति ‘अवधिदर्शन' शब्द की वाच्य है। [ मनःपर्यव - केवलज्ञान - केवलदर्शन उपयोगों की व्याख्या ] (७) मनःपर्यायज्ञान :- जम्बुद्वीप-लवणसमुद्र-धातकीखंड - कालोदधिसमुद्र- अर्धपुष्करवरद्वीप इन को अढी द्वीप कहते हैं। इन में रहे हुए सकल मनोयुक्त जीवों के मानसिक विकल्पों के ग्रहण की परिणतिवाला एवं मनःपर्यायज्ञानावरणकर्म क्षयोपशमादि विशिष्टसामग्रीजन्य चक्षुरादिन्द्रियनिरपेक्ष आत्मस्वभाव को विद्वान् 30 लोग ‘मनःपर्याय' ज्ञान कहते हैं। (मनःपर्याय या मनःपर्यव एक ही है)। चक्षुदर्शन-अचक्षुदर्शन-मतिज्ञान-श्रुतज्ञान-अवधिज्ञान-अवधिदर्शन और मनःपर्याय ज्ञान इतने सात उपयोग छद्मस्थों को होते हैं। आवरणग्रस्त आत्मा हरहमेश इन में से किसी भी एक परिणाम को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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