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________________ खण्ड-४, गाथा-२६/२७, ज्ञान- दर्शनभेदाभेदविमर्श ४९१ दर्शनरूपता ? न, मनोविकल्पस्य बाह्यार्थचिन्तनरूपस्य विकल्पात्मकत्वेन ज्ञानरूपत्वात् तद्ग्राहिणो मनःपर्यायज्ञानस्यापि तद्रूपतैव । घटादेस्तु तत्र परोक्षतैवेति दर्शनस्याभाव एव । मनोविकल्पाकारस्योभयरूपत्वेऽपि छाद्मस्थिकोपयोगस्य परिपूर्णवस्तुग्राहकत्वाऽसंभवाच्च न मनःपर्यायज्ञाने दर्शनोपयोगसंभवः । । २६ । । किञ्च, (मूलम् ) मइसुयणाणणिमित्तो छउमत्थे होइ अत्थउवलंभो । एयरम्मि वि तेसिं ण दंसणं, दंसणं कत्तो । । २७ ।। (व्याख्या) मति - श्रुतज्ञाननिमित्तश्छद्मस्थानामर्थोपलम्भ उक्त आगमे । तयोरेकतरस्मिन्नपि न दर्शनं संभवति न तावदवग्रहो दर्शनम् तस्य ज्ञानात्मकत्वात् । ततः कुतो दर्शनम् ? नास्तीत्यर्थः । अस्पृष्टेऽविषये चार्थे ज्ञानमेव दर्शनं नान्यदिति प्रसक्तम् । । २७ ।। [ अर्थाकार विकल्पग्राहक मनःपर्याय दर्शनरूप क्यों नहीं ? प्रश्न का उत्तर ] प्रश्न :- परकीय मन का जो अर्थाकार ( बाह्यघटादिसदृशाकार) विकल्प है वह भी मनःपर्यायज्ञान 10 का ग्राह्य ही है । वह अर्थाकार विकल्प न तो स्पृष्ट है न तो विषयभूत है, अतः अस्पृष्ट- अविषयभूत अर्थाकार विकल्प का ग्राहक मनःपर्यायज्ञान 'दर्शन' की व्याख्या के मुताबिक 'दर्शन क्यों नहीं ? उत्तर :- बाह्यार्थचिन्तनरूप जो मनोविकल्प है वह तो स्वयं ज्ञानरूप है अतः ज्ञान का ( विशेष का ) ग्राहक मनःपर्याय भी ज्ञानरूप ही हो सकता है । चिन्त्यमान बाह्यार्थ घटादि तो मनःपर्यायादि से परोक्ष पदार्थ ही है अत उस का ग्रहण ( अनुमान से होता है) मनःपर्याय से जब शक्य नहीं, तब 'दर्शन' की 15 आपत्ति कैसे ? हालाँकि परकीयमनोगत अर्थाकारविकल्प अस्पृष्ट एवं अविषयभूत जरूर है जो लोग उसे मनःपर्यायज्ञान का ग्राह्य नहीं मानते हैं (सिर्फ मनोद्रव्य को ही ग्राह्य मानते हैं) उन्हें तो 'दर्शन' की आपत्ति नहीं। जो लोग उसे मनःपर्यायज्ञान का ग्राह्य मानते हैं वे उस के 'दर्शनरूप' न होने में अन्य तर्क दिखाते हैं मनःपर्यायज्ञान छाद्मस्थिक उपयोगरूप है और छद्मस्थोपयोग कभी पूर्णवस्तु का ग्राहक बन नहीं सकता, इस लिये उस को 'दर्शनोपयोगरूपता' का सम्भव नहीं है । (उदा० श्रुतज्ञान ) । । २६ ।। 20 [मति - श्रुतमूलक अर्थोपलम्भ में दर्शन निरवकाश ] और एक बात है गाथार्थ :- छद्मस्थों को अर्थोपलब्धि मति या श्रुत के निमित्त से ही होती है। उन में से एक में भी दर्शन ( का भेद ) नहीं है । तो दर्शन कैसे रहेगा ? ।। २७ ।। - - Jain Educationa International व्याख्यार्थ :- आगम ग्रन्थो में ( नंदीसूत्रादि में) छद्मस्थों को होनेवाला अर्थावबोध कभी मतिज्ञानमूलक 25 या कभी श्रुतज्ञानमूलक होता है ऐसा कहा हुआ है। उन दोनों में, एक भी ज्ञान में कोई भी प्रकार 'दर्शन' रूप कहा जा सके ऐसा नहीं है । कारण अवग्रह यद्यपि अत्यन्त फीका होता है फिर भी वह होता है ज्ञानस्वरूप । अब दर्शन के रूप में उन दोनों में कौन बचा ? कोई नहीं। इस से मानना पडेगा कि अस्पृष्टार्थक एवं अविषयार्थक ज्ञान ही सच कहो तो दर्शन है, दूसरा कोई नहीं ।। २७ ।। - 5 - For Personal and Private Use Only 30 www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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