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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ नदीपुराद् वोपर्यतीतवृष्टौ वा लिङ्गिविषयं यद् ज्ञानं तस्यास्प(स्पृ)ष्टाविषयार्थस्याप्यदर्शनत्वात् ।।२५।। यद्यस्पृष्टाऽविषयार्थज्ञानं दर्शनमभिधीयते ततः - (मूलम्) मणपज्जवणाणं दंसणं ति तेणेह होइ ण य जुत्तं ।
भण्णइ णाणं णोइंदियम्मि ण घडादओ जम्हा ।।२६।। (व्याख्या) एतेन = लक्षणेन मनःपर्यायज्ञानमपि दर्शनं प्राप्तम् परकीयमनोगतानां घटादीनामालम्ब्यानां तत्राऽसत्त्वेनाऽस्पृष्टेऽविषये च घटादावर्थे तस्य भावात्। न चैतद् युक्तम् आगमे तस्य दर्शनत्वेनाऽपाठात् । भण्यते अत्रोत्तरम् - णोइंदियम्मि मनोवर्गणाख्ये = मनोविशेषे प्रवर्त्तमानं मनःपर्यायबोधरूपं ज्ञानमेव न दर्शनम् यस्मादस्पृष्टा घटादयो नास्य विषयो लिङ्गानुमेयत्वात् तेषाम्। तथा चागमः 'जाणइ बज्झे
णुमाणाओ' (वि.आ.भा.८१४)। 10 ननु च परकीयमनोगतार्थाकारविकल्पस्योभयरूपत्वात् किमिति तद्ग्राहिणो मनःपर्यायावबोधस्य न
ज्ञान को अचक्षुदर्शन कहा जाता है। - इस में इतना अपवाद है कि गगन में मेघोन्नतिरूप लिंग को देख कर निकट भविष्य में होनेवाली वृष्टि के अनुमानबोध को, अथवा नदी में आयी हुइ बाढ को देख कर उपरिदेश में अतीत वृष्टिरूप लिंगी के अनुमान बोध को अचक्षुर्दर्शन नहीं कहा जाता।
यद्यपि भावी या भूत वृष्टि रूप अर्थ अस्पृष्ट एवं इन्द्रियों का अविषय भी है किन्तु वह दर्शनरूप 15 नहीं है।।२५।।
[ मनः पर्यायज्ञान में दर्शनव्याख्या की अतिव्याप्ति का निरसन ] अवतरणिका :- अस्पृष्ट अथवा अविषयभूत पदार्थ संबन्धि ज्ञान को दर्शन कहेंगे तो मनःपर्यायज्ञान में अतिव्याप्ति का निर्देश कर के उस का वारण दिखाते हैं -
गाथार्थ :- (शंका) (तेण =) पूर्वोक्त कथन से तो मनःपर्याय ज्ञान दर्शन बन जायेगा। वह योग्य 20 नहीं है। उत्तरः- नो इन्द्रिय संबंधी होने से ज्ञानरूप है, क्योंकि घटादि उस के (साक्षात्) ग्राह्य नहीं है ।२६।।
व्याख्यार्थ :- पूर्व गाथा में जो दर्शन का लक्षण कहा (अस्पष्ट | अविषय संबंधी ज्ञान 'दर्शन' है) उस की तो मनःपर्यायज्ञान में भी प्राप्ति (यानी अतिव्याप्ति) होगी। कारण, अन्य व्यक्ति के मन
से चिन्तित घटादिस्वरूप उस का विषय न तो मनःपर्यायज्ञानी के चक्षु से स्पृष्ट है न तो वे 25 घटादि मनःपर्यायज्ञानी के मन के विषय हैं (= मानसप्रत्यक्ष विषय नहीं है।) यहाँ इष्टापत्ति नहीं हो
सकती, क्योंकि आगमशास्त्रों में तो स्थान स्थान पर उस का ज्ञानरूप से ही निर्देश है, न कि 'दर्शन' रूप से। इस का उत्तर यह है कि मनःपर्यायज्ञान ‘मनोवर्गणा' संज्ञक मनोविशेषरूप अर्थ का ग्राहक है अत एव वह दर्शन नहीं किन्तु ज्ञानमय ही है। मतलब कि वह मनोद्रव्य विशेषात्मक होने से अपनी
आत्मा से स्पृष्ट अथवा स्पृष्ट-जातीय हो कर ही मनःपर्यायज्ञान के विषय बनतें हैं अस्पृष्ट हो कर 30 नहीं। जो अस्पृष्ट घटादि पदार्थ हैं वे तो उस के ग्राह्य नहीं है, वे तो लिंगानुमेय होते हैं। विशेषावश्यकभाष्यादि आगम (गाथा - ८१४) में भी कहा है कि बाह्य घटादि को अनुमान (मतिज्ञान प्रकार) से जानता है।
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