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________________ ४९२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ ननु श्रुतमस्पृष्टे विषये किमिति दर्शनं न भवेत् ? इत्याह(मूलम्) जं पच्चक्खग्गहणं ण इन्ति सुयणाणसम्मिया अत्था। तम्हा सणसद्दो ण होइ सयले वि सुयणाणे ।।२८ ।। (व्याख्या) यस्मात् श्रुतज्ञानप्रमिताः पदार्थाः = उपयुक्ताध्ययनविषयाः तथाभूतार्थवाचकत्वात् श्रुतशब्दस्य, 5 प्रत्यक्षं न गृह्यन्ते अतो न श्रुतं चक्षुर्दर्शनसंज्ञम् । मानसमचक्षुर्दर्शनं श्रुतं भविष्यति - इत्येतदपि नास्ति, अवग्रहस्य मतित्वेन पूर्वमेव दर्शनतया निरस्तत्वात् ।।२८।। नन्वेवमवधिदर्शनस्याप्यभावः स्यात् – इत्याह(मूलम्) जं अप्पुट्ठा भावा ओहिण्णाणस्स होति पच्चक्खा। तम्हा ओहिण्णाणे सणसद्दो वि उवउत्तो।।२९।। 10 यस्मादस्पृष्टा भावा अण्वादयोऽवधिज्ञानस्य प्रत्यक्षा भवन्ति चक्षुर्दर्शनस्येव रूपसामान्यम् ततस्तत्रैव दर्शनशब्दोऽप्युपयुक्तः ।।२९।। [ अस्पृष्टविषयक श्रुत दर्शनरूप क्यों नहीं - प्रश्न का उत्तर ] प्रश्न :- श्रुत भी अस्पृष्टार्थक है तो वह 'दर्शन' क्यों नहीं ? उत्तर : गाथार्थ :- श्रुतज्ञानग्राह्य अर्थ प्रत्यक्षग्रहण (के विषय) नहीं होते, अतः सकल श्रुतज्ञान के लिये 15 'दर्शन' शब्द (प्रयुक्त) नहीं हो सकता ।।२८।। __व्याख्यार्थ :- यतः, 'श्रुत' शब्द अध्ययनोपयोगी अर्थों का वाचक होने से श्रुतज्ञानप्रमाण से गृहीत होनेवाले अध्ययनोपयोगी पदार्थ प्रत्यक्षप्रमाण से गृहीत नहीं होते, अत एव 'श्रुत' के लिये 'चक्षुदर्शन' की संज्ञा प्रयुक्त नहीं होती। तो क्या मानसश्रुत के लिये ‘अचक्षुदर्शन' संज्ञा उचित है ? नहीं, मानस ज्ञान तो अवग्रहरूप होने पर मतिज्ञानस्वरूप बन जाने से, अवग्रह में दर्शनरूपता का तो निषेध पहले 20 ही (गाथा २७ में) किया जा चुका है। 'अचक्षुदर्शन' मन से होता है किन्तु वह मानस ज्ञानरूप नहीं होता, ‘मानस अचक्षुदर्शन' दर्शन का एक भेद है किन्तु 'श्रुत' तो ज्ञानात्मक होने से उसे अचक्षुदर्शन रूप नहीं मान सकते। [ अवधिज्ञान के लिये अवधिदर्शनशब्द उचित ] शंका :- यदि इस तरह ज्ञान को ही 'दर्शन' संज्ञा दी जाय तो मुख्य ‘अवधिदर्शन' पदार्थ लुप्त 25 हो जायेगा। उत्तर : गाथार्थ :- अस्पृष्ट भाव अवधिज्ञान से प्रत्यक्ष होते हैं, अतः अवधिज्ञान के लिये दर्शनशब्द भी उपयोगी है।।२९।। व्याख्यार्थ :- अणु-परमाण आदि जो अस्पष्ट पदार्थ हैं वे उसी तरह अवधिज्ञान से प्रत्यक्ष होते हैं जैसे हम लोगों को चक्षुर्दर्शन से सामान्यरूप का दर्शन होता है। अत एव अवधिज्ञान के लिये 30 ‘अवधिदर्शन' शब्दप्रयोग अस्पृष्टार्थविषयकप्रत्यक्षत्वरूप प्रवृत्तिनिमित्त के अवलम्बन से उचित ही है ।२९।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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