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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ गतमिति विशिष्टाहारमन्तरेण तत्स्थितेरन्यत्र सद्भावे सकृदपि तत्स्थितिस्तन्निमित्ता न भवेत्, अहेतोः सकृदपि सद्भावाभावात्। यदि पुनर्विशिष्टाहारनिमित्ताप्यस्मदादिषु विशिष्टशरीरस्थिति: पुरुषान्तरे तद् व्यतिरेकेणापि भवेत् तर्हि महानसादौ धूमध्वजप्रभवोऽपि धूमः पर्वतादौ तमन्तरेणापि भवेदिति धूमादे
रग्न्याद्यनुमानमसङ्गतं भवेद्, व्यभिचारात्।। 5 अर्थतज्जातीयो धूम एतज्जातीयाग्निप्रभवः सर्वत्र सकृत्प्रवृत्तेनैव प्रमाणेन व्यवस्थाप्यते। तत्कार्य
ताप्रतिपत्तिबलादग्निस्वभावादन्यत्र तस्य भावे सकृदप्यग्नेर्न भावः स्याद् अग्निस्वभावाऽजन्यत्वात् तस्य । भवति चाग्निस्वभावाद् महानसादौ धूम इति सर्वत्र सर्वदा तत्स्वभावादेव तस्योत्पादेऽतदुत्पत्तिकस्याऽधूमस्वभावत्वादिति न धूमादेरग्न्याद्यनुमाने व्यभिचारः। तद्ययं प्रकार: प्रकृतेऽपि समानः, विशिष्टौ
दारिकशरीरस्थितेर्विशिष्टाहारमन्तरेणापि भावे तच्छरीरस्थितिरेवासौ न भवेत् । न चात्यन्तविजातीयत्वं तस्या 10 इति प्रतिपादितम्। सर्वथा समानजातीयत्वं तु महानस-पर्वतोपलब्धधूमयोरप्यसंभवि। ततोऽस्मदादेरिव
केवलिनोऽपि प्रकृताहारमन्तरेणौदारिकशरीरस्थितिश्चिरतरकाला न संभवतीत्यनुमानं प्रवर्तत एव । अन्यथा में शरीरस्थिति को विशिष्टाहार के विना ही मान लेना अनुचित है क्योंकि तब तो एक भी शरीरस्थिति में विशिष्टाहारमूलकत्व का निश्चय नहीं हो पायेगा, कारण के विना अथवा अकारणात्मक पदार्थ से
एक बार भी कार्य का अस्तित्व संभव नहीं है। यहाँ इस तरह विपक्षबाधक प्रस्तुत है - हम लोगों 15 में दिखाई देने वाली विशिष्टाहारमूलक विशिष्ट शरीर स्थिति यदि अन्य किसी (केवली आदि) पुरुषों में विशिष्टाहार के विना
शष्टाहार के विना भी संभव हो. तो पाकशाला में अग्नि के विना न दिखाई देनेवाला धम कहीं अन्य पर्वतादि में अग्नि के विना भी हो सकता है ऐसा कहा जा सकेगा। नतीजा यह होगा कि धूमादि से अग्निआदि का अनुमान लुप्त हो जायेगा, क्योंकि वहाँ व्यभिचारदोष सिर उठायेगा ।
1 [धूम से अग्निअनुमान के समर्थन की प्रस्तुत में तुल्यता ] 20 दिगम्बर कहते हैं - एक बार भी प्रवृत्त प्रत्यक्षादि प्रमाण से यह निश्चय करना बहुत आसान है कि एतज्जातीय अग्नि से एतज्जातीय धूम का सृजन होता है। प्रमाण से इस तरह के कारण-कार्यभाव की उपलब्धि के प्रभाव से यह भी निश्चित किया जा सकता है कि यदि धूम अग्निस्वभाववस्तु से भिन्न किसी जलादि के द्वारा उत्पन्न होगा तो एक बार भी धूम का अग्नि से जन्म अशक्य हो जायेगा
क्योंकि वह अग्निस्वभाववस्तु से जन्य नहीं रहा। किन्तु यह दिखाई देता है कि पाकशालादि में अग्निस्वभाव 25 वस्तु से ही धूम का उद्भव होता है अतः किसी भी देश-काल में धूम अग्नि से ही उत्पन्न हो सकता
है, क्योंकि जो अग्नि से उत्पन्न नहीं होता वह धूमस्वभाव नहीं होता। इस से अब यह निर्बाध कह सकते हैं कि धूम से अग्नि के अनुमान में कोई व्यभिचार दोष का स्पर्श नहीं होगा।
श्वेताम्बर इसके प्रत्यत्तर में कहते हैं - यही आलाप प्रकत केवलीकवलाहारसिद्धि के लिये भी समान है। देखिये - विशिष्टाहार के विना यदि विशिष्टौदारिक शरीरस्थिति का संभव होगा तो वह 'विशिष्टशरीरस्थिति' 30 कहलाने के योग्य ही नहीं होगी। 'केवली की शरीरस्थिति सर्वथा विजातीय होने से वह विशिष्टाहार के
विना भी हो सकती है' ऐसा प्रलाप अनुचित है क्योंकि पहले ही कहा जा चुका है कि केवली की शरीर स्थिति का सर्वथा वैजात्य ही असिद्ध है। यदि दिगम्बर कहें कि – 'सर्वथा विजातीयत्व नहीं है तो सर्वथा
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