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खण्ड - ४, गाथा - १५, केवलिकवलाहारविमर्श
लोमाद्याहारस्तस्य प्रतिक्षणं सद्भावेऽप्यदोषात् ।
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यदपि— ‘यथासंभवमाहारव्यवस्थिते: केवलिनः कवलाहारः, अन्यथा शरीरस्थितेरभावात् व्यवस्थाप्यते' - इत्यभिधानम् (४६३-९) तद्युक्तमेव । न हि देशोनपूर्वकोटिं यावद् विशिष्टाहारमन्तरेण विशिष्टौदारिकशरीरस्थितिः संभविनी । न च तच्छद्मस्थावस्थातः केवल्यवस्थायामात्यन्तिकं तच्छरीरस्य विजातीयत्वं येन प्रकृताहारविरहेऽपि तच्छरीरस्थितेरविरोधो भवेत्, ज्ञानाद्यतिशयेऽपि प्राक्तनसंहननाद्यधिष्ठितस्य तस्यैवाऽऽ - 5 पातमनुवृत्तेः । अस्मदाद्यौदारिकशरीरविशिष्टस्थितेर्विशिष्टाहारनिमितत्त्वं प्रत्यक्षानुपलम्भप्रभवप्रमाणेन सर्वत्राधिमें निरन्तर कवलाहार मानना पडेगा ' वह भी प्रलापमात्र है। सामान्य कारणों के रहते हुए कार्यसामान्य होता है और कारणविशेष के रहते हुए कार्यविशेष होता है यह सर्वमान्य तथ्य है । तो यहाँ कवलाहार विशिष्ट कार्य है जो कि कारणविशेष ( क्षुधावेदनीयकर्मोदय) से जन्य है, कारण विशेष सदाकाल नहीं होता अतः निरन्तर कवलाहार का आपादन व्यर्थ है। पुद्गलग्रहणस्वरूप लोमाहार कार्य कारणसामान्य 10 ( काययोग) जन्य है अतः उस को निरन्तर मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं है। मतलब कार्यसामान्य लोमाहार सतत होता रहेगा, कार्यविशेष कवलाहार तभी होगा जब कारणविशेषरूप क्षुधावेदनीय कर्म का उदय प्रवृत्त होगा ।
[ कवलाहार के विना देशोनपूर्वकोटियावत् शरीरस्थिति का असम्भव ] दिगम्बरोंने जो यह कहा था (४६४-१३) 'एकेन्द्रियादि से ले कर केवली ( पंचेन्द्रिय) तक 15 आहार व्यवस्था जो जहाँ घट सके वैसी मानना चाहिये अतः केवली में कवलाहार व्यवस्था उचित है क्योंकि कवलाहार के विना शरीर अवस्थिति दुर्घट बन जाय' ( ध्यान रखा जाय कि दिगम्बरने ऐसा जो कहा है वह स्वमत के रूप में नहीं किन्तु पराशंका के रूप में प्रस्तुत कर के बाद में उस का खंडन किया है व्याख्याकार यहाँ उस का आशंकित बयान स्वीकार करते हुए उसकी ओर से किये गये खंडन का प्रत्युत्तर दे रहे हैं -) वह तो युक्तिसंगत ही है। कारण, केवली का उत्कृष्ट 20 पर्याय देशोनपूर्व कोटि वर्ष (१ पूर्व = ७०५६० x १०९ वर्ष) होता है, विशिष्ट (कवलात्मक) आहार के विना इतने दीर्घ काल तक केवली के औदारिक शरीर की विशिष्ट स्थिति प्रवर्त्तमान रहना असंभव है । ऐसा नहीं है कि छद्मस्थावस्था युक्तशरीर के बाद केवली अवस्थायुक्त शरीर में सर्वथा वैजात्य ( रूपान्तर ) हो जाता है जिस से कि प्रकृत ( कवलरूप) आहार के विना भी दीर्घकालीन शरीरस्थिति मानने में विरोध टल जाय । ज्ञान-वचनादि का अतिशय जरूर होता है किन्तु (जैसे ज्ञान होने से पेट नहीं 25 भर जाता वैसे) ज्ञानातिशय होने के प्रभाव से संहननादि में कोई चमत्कारिक बदलाव नहीं आ जाता । पूर्वावस्था में जैसे संहननादि होते है वे ही केवली में शरीरत्यागपर्यन्त जारी रहते हैं ।
[ धूम से अग्नि के अनुमान के विलोप की आपत्ति ]
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सर्वत्र प्रत्यक्ष (अन्वय) एवं अनुपलम्भ (व्यतेरिक) निष्पन्न प्रमाण से यह स्पष्टरूप से निर्णीत किया हुआ है कि हम लोगों की औदारिकशरीरस्थिति विशिष्ट ( कवल) आहारमूलक ही होती है । 30 (कुछ दिन उपवास करते हैं तो देहलता मुरझाने लगती है और कुछ दिन पारणा करते हैं तो देहलता विकसित होती है। यह सुनिश्चित तथ्य है ।) अत एव यदि हमारे जैसे अन्य लोगों (केवली आदि)
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