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खण्ड-४, गाथा-१५, केवलिकवलाहारविमर्श
४७५ धूमादेरग्न्याद्यनुमानमपि न स्यात् । यदपि- (४६४-२) 'कुतस्तस्यैवं सर्वज्ञतादिसिद्धिः ?' इत्यभिधानम् तदप्यसंगतम् घातिकर्मक्षयप्रभवसर्वज्ञतादेः प्रकृताहारेण तत्कार्येण वा चिरकालभाव्यौदारिकशरीरस्थित्यादिना विरोधाऽसंभवात् सर्वज्ञतासिद्धिनिबन्धनस्य च प्रमाणस्य प्रतिपादितत्वात् (प्र० खण्डे) प्रकृताहारप्रतिपादकस्य च।
यदपि- (४६४-३) निराहारौदारिकशरीरस्थितेः प्रथमतीर्थकरप्रभृतिनामतिशयश्रवणात् तदियत्तानियमप्रति- 5 पादकप्रमाणाभावाच्च' इति तदप्यपालोचिताभिधानम् तस्य प्रामाण्ये तदियत्तानियमस्यापि तत एव सिद्धेः, तदधिकनिराहारतच्छरीरस्थितेः सूत्रे निषेधाद्, निरशनकालस्य तावत एवोत्कृष्टताप्रतिपादनात्। ___यदपि- (४६४-४) 'सूत्रभेदकरण-कारणाऽसंभवात्...' इत्यादि, तदप्यसंगतम् चिरतरकालस्थितिरेव सजातीयत्व (हम लोगों की शरीरस्थिति और केवली की शरीरस्थिति में) भी कहाँ सिद्ध है ? (जिस से कि कहा जा सके कि केवलीशरीर सर्वथा अस्मदादिशरीरस्थितितुल्य होने से अस्मदादिशरीरस्थिति की तरह 10 केवली की शरीरस्थिति भी विशिष्टाहार के विना नहीं हो सकती ?)' तो उस के प्रत्युत्तर में श्वेताम्बर कहते हैं कि सर्वथा साजात्य तो पाकशालीय धूम और पर्वतीय धूम में भी कहाँ है ? (जिस से कि कहा जा सके कि पर्वतीय धूम सर्वथा पाकशालीयधूमतुल्य होने से वह अग्नि के विना उत्पन्न नहीं हो सकता।) यदि धम के बारे में अंशतः साजात्य से काम लेंगे तो प्रस्तत में भी अंशतः साजात्य । जा सकता है कि हम लोगों की औदारिक शरीरस्थिति की तरह केवली की भी दीर्घकालीन औदारिकशरीरस्थिति 15 कवलाहार के विना कभी नहीं हो सकती – ऐसा अनुमान आसानी से प्रवर्त्त सकता है। अन्यथा, धूमादि से अग्निआदि के अनुमान का भी समानरूप से विलोप होगा।
दिगम्बरने जो यह तर्क लगाया था - 'हम लोगों में सर्वज्ञता नहीं होती तो तुल्यशरीरस्थितिवाले केवली में सर्वज्ञता कैसे सिद्ध हो सकेगी' - (४६४-२०) वह भी गलत है। सर्वज्ञता का कारण है घातीकर्मक्षय न कि तुल्यशरीरस्थिति आदि। केवली में घाती कर्म क्षीण हो चुके हैं अतः उस में सर्वज्ञता 20 बेरोकटोक सिद्ध है - कवलाहार या उस के कार्य के साथ चिरकालीन औदारिकशरीरशरीरस्थिति आदि से उस का कोई विरोधभाव सिद्ध नहीं है। प्रथमखंड में सर्वज्ञतासिद्धिकारक प्रमाण का सद्भाव दर्शाया हुआ है और कवलाहारसाधक प्रमाण भी सूत्रकृतांग का विग्गहगइमावण्णा... आप्तप्रमाण इसी प्रस्ताव में कहा जा चुका है।
[ केवलि की निराहार शरीरस्थिति की सीमा के सूचक सूत्र ] दिगम्बरोंने केवलिभुक्ति निषेध में जो यह कहा था (४६४-२७) – 'प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आदि के बारे में निराहार औदारिकशरीर स्थिति का अतिशय शास्त्र में सुनने को मिलता है, एवं उस निराहार शरीरस्थिति की इयत्ता (एक महिना - दो महिना इत्यादि सीमा) बोधक प्रमाण नहीं मिलता है इस से फलित होता है कि केवली अवस्था में भोजन नहीं होता।' – वह भी आँख मूंद के कह दिया है। कारण, अतिशयबोधक जो सूत्र है उसे यदि प्रमाण मानते हैं तो उसी सूत्र से एक 30 संवत्सरादि काल सीमा का नियम भी सिद्ध हो जाता है, क्योंकि एक संवत्सरादिकाल से अधिक निराहार शरीर स्थिति का उन्हीं सूत्रों में निषेध भी सूचित किया गया है। तीर्थंकर ऋषभदेव का अनशन का उत्कृष्ट काल सिर्फ एक संवत्सर बताया गया है।
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