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________________ ४७० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ अविकलकारणं चाऽविलम्बितोत्पत्तिकम्' एतदत्र प्रतिपादयितुमभिप्रेतमाचार्यस्य । [ केवलि-कवलाहारबाधक-साधकप्रमाणनिदर्शनम् ] तेन यदि केवलिनो भुक्तिकारणाभावः सिद्धो भवेत्, प्रतिबद्धत्वं वा स्वकार्यकरणे कारणस्यावगतं भवेत् तदा तदभावनिश्चयः स्यात्। न चैतदुभयमपि भवस्थकेवलिनि सिद्धम्, अप्रतिबद्धसामर्थ्यस्य 5 क्षुद्वेदनीयकर्मोदयस्य तत्र सद्भावात् । तेनाऽतज्जातीयत्वेऽपि केवलिनि भुक्तिप्रकल्पनायां चक्षुर्ज्ञानत्वाऽकेवलित्वा पत्त्यादेर्दूषणस्यानवकाशो (४६२-४), भुक्तिकारणस्येव तत्कारणस्य तत्राभावाद् निनिमित्तस्य च चतुर्तानित्वादेः कार्यस्याऽसम्भवात्। ___ यच्च- अतज्जातीयत्वं केवलिनि प्रतिपादितम् (४६२-७) तत् किमस्मदाद्यपेक्षया Bआहोस्विदात्मी यच्छद्मस्थावस्थापेक्षया ? Aतवाद्ये विकल्पे सिद्धसाध्यता। द्वितीयपक्षेऽपि घातिकर्मक्षयापेक्षया तत्तस्याभ्युपगम्यते 10 bआहोस्विद् भुक्तिनिमित्तकर्मक्षयापेक्षया ? प्रथमपक्षे सिद्धं विजातीयत्वम् न तु तावता तस्य भुक्तिप्रतिषेधः अप्रतिबद्धसामर्थ्यस्य भुक्तिकारणस्य तथाविजातीयत्वेऽपि स्वकार्यनिर्वर्तकत्वात्। "द्वितीयपक्षोऽप्ययुक्तः नहीं होता। (हम छद्मस्थता और क्रमोपयोग के बीच कारण-कार्यभाव मानते ही नहीं, क्षयोपशम और क्रमोपयोग के बीच ही कारण-कार्यभाव मानते हैं। अतः मूल ग्रन्थकार आचार्य को यही नियमप्रदर्शन अभिमत है कि पूर्णकारणसामग्री के रहने पर विना विलम्ब कार्योत्पत्ति होती है। (यानी आवरणक्षयादि 15 रूप पूर्ण कारणसामग्री केवलज्ञानोपयोग के समय में रहती है तो केवलज्ञानोपयोग के समकाल में ही केवलदर्शन का उद्भव होना ही चाहिये ।) [ केवली में भुक्ति का कारण क्षुधावेदनीय का उदय ] ___अत एव - यदि केवली में भुक्ति-कारण का नास्तित्व सिद्ध होता, अथवा अपने कार्य की सिद्धि के प्रति भुक्ति कारण को कोई प्रतिबन्ध लगा ज्ञात होता तब तो केवली में भोजनाभाव का निश्चय 20 सुगम होता। (छद्मस्थता भुक्ति कारण ही नहीं है।) किन्तु दो में से एक भी भवस्थ केवली में सिद्ध हीं है (न तो कारणाभाव सिद्ध है न तो कारणप्रतिबन्ध सिद्ध है ) क्योंकि प्रतिबन्धमुक्त सामर्थ्ययुक्त क्षुधावेदनीयकर्मोदय केवली में कवलाहार का कारण अक्षुण्ण है। अत एव 'अछद्मस्थजातीय केवली में यदि भोजन की कल्पना करेंगे तो चतुर्जानित्व-अकेवलित्व आदि की कल्पना की भी विपदा होगी' (४६३-१८) इत्यादि दिगम्बरप्रयुक्त दोष भी निरवकाश हैं। केवली में जैसे भुक्ति का कारण मौजूद 25 है वैसे यदि चतुर्जानित्व, अकेवलित्व अथवा संसारित्वादि का कारण मौजूद होता तभी वे दोष सावकाश होते, किन्तु वह मौजूद ही नहीं है। विना निमित्त कारण केवलि में चतुर्जानित्वादि कार्यों का सम्भव नहीं है। [ केवलि में दिगम्बरमान्य अतज्जातीयत्व की समीक्षा ] __ दूसरी बात, - 'जिस जातिवाले के रहते हुए जो दिखता है वह अतज्जातीय की उपस्थिति 30 में नहीं होता' ऐसी जो व्याप्ति आपने दिखायी थी – उस में, केवली में अतज्जातीयता से अभिप्रेत क्या है ? Aहम आदि की अपेक्षा से अतज्जातीयत्व (भिन्नजातीयत्व) विवक्षित है या Bकेवली की पूर्वकालीन छद्मस्थावस्था की अपेक्षा से ? प्रथम विकल्प में सिद्धसाध्यता दोष है (उस में हमारी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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