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________________ खण्ड-४, गाथा-१५, केवलिकवलाहारविमर्श ४६९ तत् तदाऽवश्यतया प्रादुर्भवति यथा अन्त्यावस्थाप्राप्तक्षित्यादिसामग्रीसमयेऽङ्कुरः, अविकलकारणं च केवलज्ञानोपयोगकाले केवलदर्शनम्, स्वावरणक्षयलक्षणाऽविकलकारणसद्भावेऽपि तदा तस्यानुत्पत्तावतद्धेतुकताप्रसक्तेः, देश-कालाकारनियमो न भवेत्। अनायत्तस्य तदसम्भवात् इति प्रतिपादितत्वात् (३६९-३)। क्रमोत्पत्तिस्वभावप्रकल्पनायां क्षायिकत्वं तस्य परित्यक्तं स्यात् । अध्यक्षसिद्धे च क्रमे तत्स्वभावप्रकल्पना युक्तिसंगता, अन्यथातिप्रसङ्गः सर्वभावव्यवस्थाविलोपप्रसक्तेः । न च यो यज्जातीये दृष्टः सोऽन्यत्राऽ- 5 तज्जातीये न भवति (४६२-७) इत्येतदत्र विवक्षितम्- किं तर्हि- 'कारणाभावे कार्यं न भवति - अवश्य उत्पन्न होता है। उदा० चरमसीमा को प्राप्त भूमि आदि पूर्ण कारण सामग्री काल में अंकुर अवश्य उत्पन्न होता है।' प्रस्तुत में, इसी नियम का पालन होगा। देखिये - केवलज्ञानोपयोग समय में केवलदर्शन भी अपनी दर्शनावरणक्षयादिरूप पूर्ण कारण सामग्री संश्लिष्ट ही है अतः केवलज्ञानोपयोग समय में केवलदर्शन का होना अनिवार्य है, फिर क्रम कैसे घटेगा ? यदि दर्शनावरणक्षयादिरूप पूर्ण 10 कारण सामग्री के रहते हुये भी केवलज्ञान के समसमय में केवलदर्शन का उदभव नहीं होगा तो होगा कि केवलदर्शन दर्शनावरणक्षयादि का कार्य नहीं है। उस के अलावा भी और कोई कारण नहीं है अतः अमुक ही देश में केवलदर्शन की उत्पत्ति का कोई सुनिश्चित नियम नहीं बनेगा, तथा अमुक ही काल में, अमुक नियताकारविशिष्ट ही केवलदर्शन की उत्पत्ति का भी कोई स्पष्ट नियम नहीं बन पायेगा। कारण, जो पदार्थ कारणसामग्री अधीन नहीं होता उस के लिये सुनिश्चित देश- 15 काल-आकार के नियम का भी सम्भव नहीं घट सकता – यह पहले भी (५६८-२१) कहा जा चुका है। यदि केवलदर्शन की क्रमोत्पत्ति के लिये स्वभाव कारण की कल्पना की जाय; तब तो उस के क्षायिकत्व को जलांजलि देना पडेगा क्योंकि वह आवरणक्षयजन्य नहीं है स्वभावतः है। सच बात तो यह है कि यदि केवल उपयोगों का क्रम प्रत्यक्षसिद्ध होता तब तो उस के प्रति कारण के रूप में स्वभाव की कल्पना में औचित्य होता; (क्योंकि आवरणक्षय के रहते हुए भी समकालीनता न हो 20 कर क्रम ही प्रत्यक्ष सिद्ध है, तब अन्य गति के न होने से स्वभाव ही शरणभूत बन सकता था, तब तो क्रम है या नहीं उस का भी विवाद नहीं होता।) किन्तु जब समकालीनता या क्रम दोनों परोक्ष ही है तब स्वभाव और क्रमोपयोग के कारण-कार्यभाव की कल्पना कर ले, तो अन्यत्र कई जगह अग्नि आदि की उत्पत्ति के पीछे भी स्वभाव की कारणता की कल्पना कर लेने का अतिप्रसंग हो जाने से सर्वत्र स्वभावेतर कारण और कार्यों की निश्चित व्यवस्था लुप्त हो जायेगी। 25 [बलवान् कारणसामग्री से कार्योत्पत्ति अवश्य ] दिगम्बर के प्रति व्याख्याकार की यह स्पष्टता है कि छद्म और क्रमोपयोग के बारे में हम ऐसा नियम प्रदर्शन (४६२-२५) नहीं इच्छते हैं कि 'एकजातिवाले के किसी एक देश-काल में रहते हुए (छद्मस्थता के रहते हुए) जो (क्रमोपयोग) दिखता है वह अन्य देश-काल में जब नहीं रहता, (केवलज्ञानकाल में छद्मस्थत्व नहीं रहता) तब वह भी (क्रमोपयोग भी) नहीं रहता।' (यदि ऐसा नियम हम दिखाते 30 तब तो छद्मस्थता के विरह में केवली में कवलाहार के न होने की बात जोरों से दिगम्बर कर सकते थे।) अरे ! हम तो यही नियम दिखाना चाहते हैं कि कारण (क्षयोपशम) के विरह में कार्य (क्रमोपयोग) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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