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खण्ड-४, गाथा-१५, केवलिकवलाहारविमर्श
४७१ अतज्जातीयत्वस्यैवाऽसिद्धत्वात् तन्निमित्तस्य कर्मणो भवस्थकेवलिनि पर्यन्तसमयं यावदनुवृत्तेः। यदपि 'न देहित्वं भुक्तिकारणं तथाभूतशक्त्यायुष्क-कर्मणोस्त तुकत्वाद् एकवैकल्ये तदभावात् ।' - (४६३-५) इति तदप्यसंगतम् । यतो न देहित्वमात्रं प्रकृतभुक्तिकारणम् अपि तु विशिष्टकर्मोदयसामग्री, तस्याश्च ततोऽद्याप्यव्यावृत्तेः कुतस्तदभावः ? तथाभूतशक्त्यायुष्क-कर्मणोश्चैकस्यापि वैकल्याऽसिद्धेः 'एकवैकल्ये तदभावात्' (४६३-५) इत्यसिद्धम्।
5 यच्च- 'औदारिकव्यपदेशोऽप्युदारत्वाद् न भुक्तेः'- इति (४६३-६) तदपि न दोषावहम् औदारिकशरीरित्वे स्वकारणाधीनाया भुक्तेरप्रतिषेधात् । व्यपदेशस्योदारत्वनिमित्तत्वेऽपि स्वकारणनिमित्तप्रकृतभुक्तिसिद्धेः । यदपि - 'एकेन्द्रियादीनामयोगिपर्यन्तानामाहारिणां सूत्र उपदेश:...' इत्याद्यभिधानम् (४६३-६) तदप्यसंगतम्; कुछ भी हानि नहीं है, क्योंकि हम आदि की अपेक्षा से केवली में भिन्नजातीयता हमें इष्ट ही है किन्तु ऐसे भिन्नजातीय केवली में कवलाहार के साथ विरोध नहीं है। दूसरे विकल्प में, केवली में 10 उन की छद्मस्थावस्था की अपेक्षया जो भिन्नजातीयता है वह घातीकर्म के क्षय से प्रयुक्त है या bभोजनप्रेरककर्मक्षय से प्रयुक्त है ? प्रथम पक्ष में भिन्नजातीयता सिद्ध होने पर भी भोजन का प्रतिषेध सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि तथाविध भिन्नजातीयता (घातीकर्मक्षय) रहने पर भी प्रतिबन्धशून्य शक्तिशालि भोजनकारण क्षुधावेदनीयकर्मोदय अपने कार्य भोजन को निष्पन्न कर के ही रहेगा। द्वितीयपक्ष भी अयुक्त है क्योंकि भोजनप्रेरकवेदनीय कर्म का क्षय (स्वरूप वैजात्य) केवली में खपुष्पतुल्य है, क्योंकि 15 भोजनप्रेरक वेदनीय कर्म भवस्थ केवली में चरम समय तक जिन्दा रहता है।
दिगम्बरने जो यह कहा था कि 'शरीरस्थिति भोजन की कारण नहीं होती किन्तु आत्मा की देहधारण शक्ति एवं आयुष्कर्म ही उस का कारण होता है (४६३-२०), क्योंकि इन दोनों में से एक भी यदि नहीं रहता तो भोजन भी नहीं रहेगा।' – यह कथन भी गलत है, क्योंकि हम सिर्फ शरीरित्व को ही भोजन का कारण नहीं मानते किंतु विशिष्टकर्मोदय (क्षुधावेदनीयकर्मोदय-आहारपर्याप्ति आदि) 20 सामग्री को भोजन का कारण मानते हैं जो कि केवली में सिद्ध है, तो फिर कारणसामग्री के रहने पर कवलाहार का निषेध कैसे सिद्ध होगा ? अरे आप जो आत्मशक्ति एवं आयुष्कर्म को भोजन का कारण मानते हैं वे दोनों भी केवली में मौजूद होने से भोजन प्रसक्त होता है तो ‘एक के विरह में भी भोजन नहीं होगा' ऐसा कहाँ से सिद्ध होगा ? [दिगम्बर के औदारिक-आहारित्वादि कुतर्कों का निरसन ]
25 यह जो दिगम्बरों ने कहा है - 'केवली के शरीर का भी 'औदारिक' शब्दव्यवहार भोजनमूलक नहीं है किन्तु उदार यानी मनोहरपुद्गलों के कारण है'- (४६३-२४) यह कथन हमारे मत में दोषापादक नहीं है, क्योंकि औदारिकशरीरधारी केवली में स्वकारणाधीन भोजन का निषेध शक्य नहीं है चाहे औदारिक का 'उदार' अर्थ भले हो। उदारत्व को 'औदारिक' शब्दव्यवहार का निमित्त बना देने पर भी स्वकारणमूलक कवलाहार की सिद्धि में कोई बाधा नहीं है।
30 दिगम्बरोंने जो यह कहा है (४६३-२७)- “एकेन्द्रिय से लेकर अयोगी केवली पर्यन्त जीवों के लिये सूत्र में जो आहारित्व का निर्देश किया गया है वह कवलाहार को ले कर नहीं किन्तु देह
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