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________________ 10 ४६४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ तच्छरीरस्थितेरभावादिति - तदपि न युक्तिक्षमम्; यतो यदि नामाऽस्मदादेः प्रकृताहारमन्तरेणौदारिकशरीरस्थिते. प्रभूतकालमभावात् केवलिनोऽपि तथाऽनुमीयते तर्हि सर्वज्ञतापि तस्य कथमवसातुं शक्या दृष्टव्यतिक्रमप्रकल्पनाऽयोगात्। श्रूयते च प्रकृताहारमन्तरेणाप्यौदारिकशरीरस्थितिश्चिरतरकाला प्रथमतीर्थकृत्प्रभृतीनाम् । न च तदियत्तानियमप्रतिपादकं प्रमाणमस्ति- इति सूत्रभेदकरणनिमित्ताऽसंभवात् यथा-न्यासमेव सूत्रार्थ5 परिकल्पनमस्तु। एवं च निरन्तराहारवचनमप्यनुल्लंधितं भवेत्। ___ अथापि स्याद्- अतिशयदर्शनाद् निरवशेषदोषावरणहानेरत्यन्तशुद्धात्मस्वभावप्रतिपत्तिवत् प्रकृताहारविकला औदारिकशरीरस्थितिरात्यन्तिकी क्वचिद् यदि भवेत् तदाऽसम्भवन्मुक्तीनां केवलिनां प्रमाणत: प्रतिपत्तेः समुद्घात अवस्था में मध्यक्षणत्रय को (जिस में सूत्रकारों ने आहार का निषेध किया है) छोड कर सदा काल कवलाहार मानने का संकट खडा होगा। (फिर देशनादिकार्य के लिये समय ही नहीं मिलेगा) [कवलाहार के विना शरीरस्थितिभंगकल्पना अयुक्त ] यदि कवलाहारवादी कहें – “यद्यपि एकेन्द्रियादि के साथ केवली का निर्देश है, फिर भी जैसे पशु-मनुष्य समानरूप से आहारी होने पर भी पशु तृणाहारी और मनुष्य मुख्यरूप से अन्नाहारी ऐसा विवेक करना पडता है - उसी तरह सम्भवानुसार विवेक करना चाहिये कि एकेन्द्रियादि को लोमाहार एवं केवली (मनुष्य) को कवलाहार होता है। (जैसे आहार संज्ञा एकेन्द्रिय को लोमाहार कराती है 15 किन्तु पशु-मनुष्य को कवलाहार में प्रेरित करती है।) यही युक्ति से संगत है। ऐसा न मानने पर केवली के शरीर की कवलाहार के विना दीर्घकाल तक अवस्थिति नहीं बनी रहेगी।" - तो दिगम्बर कहते हैं कि यह भी तर्कसंगत नहीं है। यदि हम लोगों की औदारिकशरीर अवस्थिति कवलाहार के विना दीर्घकाल तक न टीकने का देख कर केवली के लिये भी हम वैसी कल्पना कर लेंगे तो हम लोगों में ज्ञान की अल्पता को - ससीमता को देख कर केवली में भी ससीम ज्ञान की प्रसक्ति 20 होने पर उस में सर्वज्ञता की संगति भी कैसे जान पायेंगे ? क्योंकि दृश्यमान वस्तु में अन्यथा कल्पना की तो आप मना करते हैं। यह भी याद करिये की प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव आदि केवलीयों ___ की औदारिक शरीरस्थिति कवलाहार के विना भी दीर्घकाल तक प्रसिद्ध रही थी। [ कवलाहारविरह में शरीरस्थिति का कालनियम नहीं ] ऐसा नहीं कह सकते कि – 'वह तो सिर्फ सालभर के लिये ही रही बाद में तो कवलाहार 25 कर लिया था अतः वर्ष से ज्यादा नहीं टीक सकती' – क्योंकि एक वर्ष के लिये जब शरीरस्थिति कवलाहार के विना अक्षुण्ण रही तो हजारो लाखों वर्ष या लाखों पूर्व तक भी रह जाय तो क्या बिगडता है ? क्योंकि यहाँ कोई सीमांकन (= नियम) तो नहीं है कि इतने दिन तक ही कवलाहार के विना शरीर टीक सकता है, बाद में नहीं। अतः सूत्र में एकेन्द्रियादि और केवली में आहार के विषय में भेद करने के लिये कोई आधार न होने से सूत्र के निर्देशानुसार ही उस के अर्थ की 30 कल्पना करना उचित है जिस से कि निरन्तराहार के कथन का भी उल्लंघन नहीं होगा। . [ केवलीमुक्ति के असम्भवदोष का आपादन - श्वेताम्बर ] यदि आशंका की जाय - “दिगम्बर अभिप्रेत अतिशयदर्शन प्रयुक्त केवलिकवलाहाराभाव निरापद् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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