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________________ खण्ड-४, गाथा-१५, केवलिकवलाहारविमर्श ४६५ 'अशरीरा जीवघणा' (प्रज्ञा०२-५४-१६१) इत्याद्यागमविरोधः प्रसज्येत- असदेतत्, यतः किमेवं सर्वज्ञस्याऽसत्त्वं प्रतिपादयितुमभिप्रेतम् Bउतातिशयदर्शनस्य तदहेतुत्वम् ? न तावदाद्यः पक्षः, धर्मिणोऽभावे तद्धर्मस्य प्रस्तुतस्य साधयितुमशक्तेः । नापि द्वितीयः, औदारिकशरीरस्य चिरतरकालावस्थायित्वस्याऽविरोधात्। न चातिशयदर्शनस्य तदहेतुत्वे केवलिभुक्तिसिद्धिः। न च 'यदतिशयवत् तदात्यन्तिकमतिशयमनुभवति' इति सर्वत्र साध्यते किन्तु व्याप्तिदर्शनमात्रमेतत्, अत: कियत्कालावस्थितिमात्रं केवलिनां शरीरस्थितेरिष्टं 5 नात्यन्तिकम्। न च संयोगस्यात्यन्तिकी स्थिति: संभवति सत्यपि प्रकर्षदर्शने जीव-कर्मणोरनादित्वेऽपि विश्लेषप्रतिपत्तेः । संश्लेषस्थितिनियमस्य चानिष्टेरसंख्येयकालादूर्ध्वं पुद्गलपरिणतेः सर्वस्य अन्यथाभवनाद् । नहीं है। जैसे अतिशय दर्शन यानी चरमसीमाप्राप्त सकल दोष-आवरणों का क्षय होने पर साधक को आत्यन्तिक शुद्धात्मस्वभाव का उद्भव होता है वैसे यदि कवलाहार के विना चरमप्रकर्षप्राप्त अन्तविहीन औदारिक आत्यन्तिक शरीर अवस्थिति किसी पुण्यात्मा केवली को उपलब्ध हो जाय तब तो यह अनिष्ट 10 होगा कि केवली की सशरीर आत्यन्तिक स्थिति सदाकाल शाश्वत बन जायेगी, तब उस केवली को मुक्ति भी प्राप्त नहीं होगी, मुक्ति का असंभव हो जायेगा - आप से ही निर्दिष्ट अतिशयदर्शनरूप चिरतरकालावस्थायि शरीरस्थिति यहाँ प्रमाणभूत बन जायेगी। फलतः दूसरा एक संकट होगा कि सिद्धान्त में जो ‘असरीरा जीवघणा उवउत्ता दंसणे य नाणे य' (प्रज्ञा० २-५४-१६१) कह कर अशरीरी मुक्त केवली भगवंतो का निर्देश किया है उस आगम के साथ विरोध प्रसक्त होगा।” - 15 [केवलीमुक्ति असंभव दोष का परिहार - दिगम्बर पूर्वपक्ष ] तो दिगम्बर कहते हैं कि यह कथन (आपत्तिनिर्देश) गलत है। उक्त आपत्तिनिर्देश के समक्ष दो विकल्प प्रश्न खडे होंगे। - Aक्या उस आपत्ति के द्वारा आप सर्वज्ञ का ही निह्नव कर रहे हो ? या Bअतिशयदर्शन आत्यन्तिकता (आत्यन्तिकशरीरस्थिति) का हेतु नहीं होता यह दिखाना चाहते हो ? Aप्रथम विकल्प मानेंगे तो आश्रयासिद्धि दोष होगा। जब धर्मी सर्वज्ञ केवली ही असिद्ध है तब 20 उस में कवलाहाररूप प्रस्तुत धर्म का साधन शक्य नहीं होगा। दूसरा विकल्प मान लेंगे तो अतिशयदर्शन के द्वारा आत्यन्तिक शरीरावस्थिति शाश्वतरूप से ही होना अनिवार्य नहीं है क्योंकि वह आत्यन्तिकता चिरतरकाल(आयुःपर्यन्त)अवस्थायित्वरूप भी हो सकती है जिस के साथ अतिशयदर्शन का कोई विरोध नहीं है। अतिशयदर्शन के द्वारा हम यह सिद्ध नहीं करना चाहते कि जो सातिशय होता है वह आत्यन्तिक अतिशयरूप ही होता है। हम 25 तो इतना ही नियम दिखाना चाहते हैं कि जो सातिशय है वह चिरतरकालस्थायी हो सकता है। अत एव केवली भगवंत के शरीर की जीवनपर्यन्त अवस्थिति, विना आहार के भी हो सकती है - इतना ही हम सिद्ध करना चाहते हैं न कि आत्यन्तिक (शाश्वत) शरीरस्थिति। आत्यन्तिक शरीरस्थिति में तो यह भी एक बडा बाधक है, जीव के साथ शरीरसंयोग कभी भी शाश्वत नहीं हो सकता, संयोगमात्र अनित्य (सान्त) होता है, जैसे :- जीव-कर्म का अनादि प्रकृष्टसंयोगदर्शन सुविदित है फिर 30 भी उन का मुक्तिअवस्था में (१४वे गुणस्थान के अन्तिम क्षण में) वियोग होता है वह सर्वमान्य है। संयोग की शाश्वतता का नियम जैन सिद्धान्त में इष्ट भी नहीं है क्योंकि सिद्धान्त में कहा है कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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