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खण्ड - ४, गाथा - १
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इत्येकसामग्र्यधीनतया व्यपदेशः । न ह्येककालयोरत्रापि प्रकाश्य - प्रकाशयोः कार्यकारणभाव उपपद्यते । ननु यदि साकारं विज्ञानमभ्युपगम्यते तदा चक्षुरादिकोऽर्थः प्रतिक्षिप्तः एव भवेत्, चक्षुराद्याकारस्य संवेदनमात्रस्यैवोपलब्धेर्न तदाकाराच्चक्षुराद्यर्थव्यवस्था स्यात् । यतो न बाह्यार्थस्तदाकारं च विज्ञानं द्वयमुपलम्भविषयः, तत्त्वे वा ज्ञानमेव, तत्रापि साकारम्, तत्राप्यर्थस्य पुनरप्युपलब्ध्यभ्युपगमे ज्ञानाकारेऽन्तर्भावः इति न कदाचित् स्वरूपेणोपलब्धिर्भवेदिति नार्थव्यवस्था । असदेतत्- कार्यव्यतिरेकेण बाह्यार्थपरिकल्पना 5 अर्थापत्त्या वा परेषामभिमतेति तदभ्युपगमादर्थस्यायमाकारः प्रकाशतामनुप्रविष्टः इत्यभिधानात् रूढ होने के कारण अपोद्धारकल्पना यानी काल्पनिक पृथक्करण के बल से प्रकाशता से भिन्न रूप का व्यवहार एवं चक्षुजन्य प्रकाशता से ( अपोद्धार = ) पृथक्करण - कल्पना के द्वारा रूप में चक्षुजन्यता का व्यवहार घटाया जा सकता है। इस में कोई असमञ्जसता नहीं है ।
अथवा यह भी कहा जा सकता है कि अपनी अपनी पूर्वोपस्थित तथाविध सामग्री के वशात् 10 चक्षुआदि आकार एवं रूपादि आकार एवं उन दोनों में जन्य-जनक भाव आकार - ऐसी त्रिमूर्त्ति प्रकाशता जो कि बुद्धिस्वरूप ही है- जन्म लेती है । उस में ( कथंचिद् भिन्नाभिन्न) चक्षु आकार प्रकाशता एवं रूपादि आकार प्रकाशता दोनों ही समान सामग्री पर अवलम्बित होने के कारण 'चक्षु आदि से रूप का उपलम्भ होता है' ऐसा व्यवहार संगत होता है। दिखता भी है कि प्रदीप एवं उस का प्रकाश दोनों ही तैलादि समान सामग्री पर अवलम्बित समकालीन होने पर भी प्रदीप से घट का प्रकाश 15 हुआ' ऐसा अनुभव या व्यवहार किया जाता है। स्पष्ट है कि एक ही काल में उत्पन्न प्रदीप से प्रकाश्य घट एवं उस का प्रकाश दोनों के बीच कार्य-कारणभाव तो घट ही नहीं सकेगा, सिर्फ घटाकार प्रकाशता और प्रदीपाकार प्रकाशता उन दोनों में ही समकालीन कार्य-कारण भाव घट सकता है।
** साकारवाद में अर्थव्यवस्था की अनुपपत्ति का आपादन *
यदि कहा जाय - ' आप साकार ज्ञानवाद का पुरस्कार करते हैं तब 'चक्षु से ( या प्रदीप से) 20 घट का उपलम्भ ( या प्रकाश) हुआ' ऐसी प्रतीतियों के बावजूद भी चक्षु या प्रदीप का निषेध ही फलित होगा । कारण, आप के मत में तो चक्षु आदि भी संवेदन का आकारमात्र ही है न कि कोई बाह्य वस्तु। फलतः चक्षु आदि अर्थ का स्वरूपनिश्चय (= व्यवस्था ) असंभव होगा क्योंकि आकारमात्र से किसी का स्वरूपनिश्चय नहीं होता । देखिये 'चक्षु से घट देखता हूँ' इत्यादि प्रतीति में १ चक्षुरूप बाह्यार्थ और २चक्षुआकार विज्ञान ये दो तो उपलब्ध नहीं होते, क्योंकि आप स्वतन्त्र बाह्यार्थ मानते 25 ही नहीं । यदि कहें कि स्वतन्त्र नहीं किन्तु ज्ञान में प्रतिबिम्बित आकारस्वरूप बाह्यार्थ मानते हैं तो वह ज्ञानमय ही तत्त्व हुआ न कि बाह्यार्थ । ज्ञान तो अभ्यन्तर तत्त्व है। ज्ञानमय तत्त्व भी साकारज्ञानवाद में अर्थाकार ही आप को मानना होगा । उस साकार ज्ञान में यदि आप अर्थ की स्वतन्त्र उपलब्धि बतायेंगे तो उस का भी अन्तर्भाव तो ज्ञानाकार में ही करना होगा। फलतः, बाह्यार्थ ज्ञानाकार रूप से ही भासित होगा किन्तु कभी भी अपने असाधारण स्वरूप से उसका स्फुट प्रतिभास नहीं 30 हो सकेगा । अतः साकार ज्ञानवाद में कैसे भी अर्थव्यवस्था घट नहीं सकेगी । ' * विज्ञानवाद में स्वतन्त्रतया बाह्यार्थ असिद्धि भूषण है*
तो यह भी गलत है । बाह्यार्थसिद्धि तो आप कार्यव्यतिरेक से या अर्थापत्ति प्रमाण से करना
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