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________________ २० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ सर्वसाधारणमिति सिद्धः प्रतिकर्म प्रत्ययः' - इति, [ ] तदप्ययुक्तम्; यतो न किञ्चिन्नीलाद्याकारप्रकाशताव्यतिरेकेणोपलभ्यतेऽपरमिति कस्यार्थे प्रत्यासन्नता परैः परिकल्प्यते ? प्रकाशता तु यदि निराकारा स्यात् प्रतिकर्म व्यवस्था न भवेत्, नह्यालोकमात्रेणामिश्रितघटादिरूपेण तद्रूपप्रकाशनं युक्तम् । ___ कथं तर्हि चक्षुरादिना रूपमुपलभ्यत इति व्यवस्था ? बाह्यार्थवादिपरिकल्पिते परोक्षे रूपादौ तदाकारा प्रकाशता चक्षुरादिना जन्यते इति तथाव्यपदेशः सम्भवी। प्रकाशता वाऽपोद्धारपरिकल्पनयाऽनादिवासनानियमाद् भिन्ना व्यपदिश्यत इति न किञ्चिदयुक्तम् । यद्वा, पूर्वसामग्रीतश्चक्षुरादिरूपाद्याकारप्रकाशता बुद्धिस्वभावोपजायते इत्येकसामग्र्यधीनतया तथाव्यपदेशः। दृश्यते हि प्रदीप-प्रकाशयोः समानकालयोः ‘प्रदीपेन घटः प्रकाशितः' बुद्धि (अर्थापत्ति) की कल्पना भी निरर्थक सिद्ध होती है। ऐसी वास्तविकता होने पर - आपका जो यह निवेदन है कि - ‘ज्ञान निराकार होता है एवं नियमतः नील या पीत आदि से संलग्न होने 10 के कारण नील या पीत अर्थ के प्रति अभिमुख रहता हुआ ही गृहीत होता है। तब कैसे कह सकते हैं कि वह सर्वसाधारण यानी नील-पीत आदि सभी का प्रतिभासक बन बैठेगी ? नियमतः संलग्नता के कारण नील के प्रति अभिमुख निराकार बोध नील का और पीत के प्रति अभिमुख निराकार ज्ञान पीत का ही प्रतिभास करायेगा - इस तरह प्रत्येक विषयों की अलग अलग प्रतीति घट सकती है।' - यह निवेदन भी अब गलत ठहरेगा। कारण, जो कुछ भी उपलम्भ होता है वह नीलादिआकार 15 प्रकाश ही है, उस को छोड कर और कुछ भी पृथक् उपलब्ध नहीं है, फिर नील या पीत अर्थ के साथ ही प्रत्यासन्नता यानी आभिमुख्य या संलग्नता की कल्पना किस के लिये ?! स्पष्ट बात है कि प्रकाशता या बोध या प्रकाश स्वयं निराकार होगा तो संलग्नता का नियम ही घट न सकने से प्रतिविषय व्यवस्था की शक्यता ही नहीं बनती। जिस में घटादिस्वरूप किसी आकार का मिश्रण ही नहीं है वैसे केवल आलोकमात्र से कभी भी घटादिस्वरूप का प्रतिभासन होना युक्तियुक्त नहीं है, 20 क्योंकि तब तो घटादि भी पटादि का प्रतिभासक बन बैठेगा। * चक्षु आदि से रूप के उपलम्भ की अनुपपत्ति का निरसन * प्रश्न :- जब घटादिरूप का प्रकाशन साकार ज्ञान से होने का आप प्रस्थापित करते हैं तब 'चक्षु आदि से रूप का उपलम्भ होता है'- ऐसे अनुभवों की या ऐसे व्यवहारों की स्थापना कैसे करेंगे ? आप के मत में तो रूपप्रकाशन कार्य चक्षु से नहीं, साकार ज्ञान से होता है। 25 उत्तर :- ‘चक्षु आदि से रूप का उपलम्भ होता है' ऐसी प्रतीतियों की स्थापना इस ढंग से सरलता से हो सकती है कि बाह्यार्थवादियों ने (सौत्रान्तिक ने) जो परोक्ष रूपादि की कल्पना कर रखी है उस के स्थान में हमारे मत से 'चक्षु आदि के द्वारा रूपादिआकार प्रकाशता का जन्म होता है' यही माना गया है। अतः चक्षु से रूपोपलब्धि की प्रतीति का व्यवहार स्थापित करना संभवित है। अथवा साकारवाद में भी जनसमुदाय में अनादिकालीन अर्थ एवं प्रकाशता के भेद की वासना ..शंकराचायकृत-योगभाष्यविवरणे (३/१७)- “यथैव मृगतृष्णिकातोयमलीकमपि सत्यादृषरादपोध्रियते, यथा च स्थाणोः पुरुषः पुरुषाच्च स्थाणोः, शुक्तिकातश्च रजतमपोध्रियते, यथैव च मृगतोयादयो यथाभूतोषरादिवस्तुप्रतिपत्तिहेतवः ...... यथा च लिप्यक्षराणि संकेतापेक्षत्वात् कृतसमयरूपाणि अकारादिवर्णादपोद्धियन्ते- अथ च सर्वाण्येतानि यथाभूतार्थप्रतिपादनोपायं प्रतिपद्यन्ते- न च तावता मिथ्यात्वमेषां नास्ति तथा.....” इत्याधुक्तम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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