SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड-४, गाथा-१ वा सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्रसक्तिः। अथ 'नीलस्य प्रकाशः' इति व्यतिरेक उपलभ्यत एव । न, 'शिलापुत्रकस्य शरीरम्' 'स्तम्भस्य स्वरूपम्' इत्यत्रापि व्यतिरेकोपलब्धेर्व्यतिरेकः स्यात्, ‘प्रकाशस्य प्रकाशता' इति च दृष्टेर्भेदः प्रकाशतायाः स्यात् । अथात्रैकैव प्रकाशतोपलभ्यते नापरेति न प्रकाशस्यापरः प्रकाशो व्यतिरेकोपलम्भस्य प्रत्यक्षबाधितत्वात- तर्हि नील-प्रकाशयोरपि न प्रत्यक्षप्रतीतो भेद इति तत्रापि समानन्यायतो व्यतिरेकस्यासिद्धेर्नीलाद्याकारैव प्रकाशता, सा च बुद्धिः, इति सिद्धा साकारता ज्ञानस्य। 5 ___ अथ परोक्षा बुद्धिनिराकारा च ततः साकारत्वमुभयस्याऽसिद्धम् । असदेतत्- निराकारस्य बोधस्य 'बुद्धिः बुद्धिः' इति विकल्पेऽप्यप्रतिभासनात् । अर्थापत्तेश्च प्रक्षयः प्रकाशमात्रेणाऽर्थस्य सिद्धत्वाद्, व्यर्थं तदपरबुद्धिपरिकल्पनम्। ततश्च यदुक्तम् – “निराकारमेव ज्ञानमर्थोन्मुखमुपलभ्यमानं प्रतिनियमेन कथं होने पर, अकेले नीलादि की उपलब्धि कभी किसी को होती नहीं है। तात्पर्य, जब भी नीलादि उपलब्ध हुआ प्रकाशता के साथ ही उपलब्ध हुआ है। यदि बिना प्रकाश ही नीलादि उपलब्ध होगा तो नेत्रादि 10 की आवश्यकता न होने से अब अंधे या देखनेवाले या बंद आँखवाले सभी को दूर-निकट आगेपीछे रही हुई सभी वस्तु दीखने लगेगी, सब सर्वदर्शी हो जायेंगे। * षष्ठी विभक्ति भेद नियामक नहीं होती * ___ यदि कहें कि - ‘नील का प्रकाश' इस तरह भेददर्शक षष्ठी विभक्तिप्रयोग से नील और प्रकाश के बीच भेद सूचित होता है।' - तो ठीक नहीं क्योंकि 'थंभे का स्वरूप, शिलापुत्रक (मसाला पिसने 15 के लिए शिलाखण्ड) का देह' - इत्यादि प्रयोगों में व्यतिरेकदर्शक षष्ठी होने से यहाँ भी खंभा और उस के स्वरूप के बीच भेद मानना पडेगा। उपरांत, ‘प्रकाश की प्रकाशता' ऐसा भी प्रयोग दिखता है अतः यहाँ प्रकाश और प्रकाशता के बीच भी भेद गले पडेगा। यदि कहा जाय कि - ‘प्रकाश की प्रकाशता' प्रयोग सुनने पर भी एक ही प्रकाशत्व विदित होता है दूसरा कोई प्रकाशत्व विदित नहीं होता, प्रकाश से पृथक् किसी प्रकाशत्व की उपलब्धि यहाँ तो प्रत्यक्षबाधित है इसलिये प्रकाश का कोई दूसरा प्रकाश 20 नहीं होता।' - तो नील और प्रकाश के बारे में भी कह सकते हैं कि प्रत्यक्ष से कोई भेद यहाँ उपलब्ध नहीं होता। न्याय उभयत्र समान लागू होगा। अतः नील और प्रकाश के बीच 'नील का प्रकाश' ऐसे प्रयोग मात्र से भेद सिद्ध न होने के कारण मानना होगा कि प्रकाशता भी नीलादि का ही आकार है और प्रकाशता ही बुद्धि है इसलिये बाह्य अर्थ न होने पर भी ज्ञान की साकारता सिद्ध होती है। * बोध की निराकारता का निरसन, साकारता का समर्थन * 25 उक्त प्रकार से ज्ञान की साकारता सिद्ध होने पर भी यदि हठ किया जाय कि - 'बुद्धि तो निराकार ही है किन्तु वह परोक्ष भी है इसलिये उस की निराकारता का प्रत्यक्ष से भान अशक्य है। इसीलिये उस की साकारता भी न तो आप सिद्ध कर सकेंगे, न हम, क्योंकि बुद्धि परोक्ष है।' - तो यह भी गलत है। 'बुद्धि-बुद्धि' इस ढंग से बुद्धि का विकल्प भान सभी को होता है (यानी वह परोक्ष नहीं है) किन्तु उस में (यानी विकल्प में) प्रतिभासित होने वाले बोध में निराकारता भासित 30 ती। नीलादिआकार प्रकाशमात्र से नीलादि अर्थ यानी अर्थाकार भी सिद्ध है, अत एव निराकार बोध की अनुपपत्ति के द्वारा अर्थापत्ति का प्रयोग भी प्रक्षीण यानी निरवकाश हो जाता है। अर्थापत्ति का जब यहाँ कोई उपयोग ही नहीं है तब उस के लिये अर्थ से भिन्न अथवा बुद्धि की ग्राहक अन्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy