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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ किन्तु पृथगपोद्धारपरिकल्पनया प्रकाशरूपतया व्यवस्थापिता 'बुद्धिः' इति व्यपदिश्यते। अयुक्तमेतत्यतो नाऽव्यतिरेकेण प्रतीयमाना बुद्धिर्विकल्पेनापोद्धर्तुं शक्या, न च पृथक् प्रतीयते सेत्युक्तम्।।
अथ सुख-स्तम्भाद्याकारतया यद्यन्त(:)स्प्रष्टव्यरूपादिकमेव ज्ञानं प्रतिभाति न पुनस्ततो व्यतिरिक्तमपरं ज्ञानम्- तथा सति संवेदनमात्रमेव प्रसक्तम् एवं च 'चक्षुरादिना मया रूपं प्रतीयते' इति सम्बन्धाभावात् 5 कथं प्रतीतिः ? अस्ति चेयं प्रतीतिः, तस्मादुपलभ्ये रूपादिकेऽभिमुखीभूतं चक्षुस्तत्प्रकाशत्वं विदधाति सा
च बुद्धिरुच्यते। न च नीलाद्याकारमविद्यमानमेव तत्र प्रकाशत्वमुत्पन्नमिति वक्तव्यम्, विद्यमाननीलादिविषयस्य चक्षुरादिव्यापारादविद्यमानस्य प्रकाशत्वस्यैव तत्रोत्पत्तेः, नीलादेस्तु पूर्वमेव भावात्। तथा च सति ‘अर्थस्या बुद्धिः' इति व्यपदेश: सिद्ध एव । अत एवोक्तं- 'बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानमित्यनर्थान्तरम्' (न्याय० १-१-१५)
इति। 10 एतदप्यसत्- यतो न प्रकाशव्यतिरेकेण नीलादिरुपलभ्यते इति कुतः पूर्वव्यवस्थित एव नीलादौ
प्रकाशता चक्षुरादेरुदयतीति वक्तुं शक्यम् ? न हि प्रकाशतारहितं कदाचिदुपलब्धं नीलादिकम्, उपलम्भे द्वारा जिस का अवधारण किया जाता है, उसी का 'बुद्धि' ऐसा सम्बोधन किया जाता है।' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अर्थ से अपृथक् प्रतीत होने पर, विकल्प के जोर से बुद्धि का पृथग् अवधारण
शक्य ही नहीं है। पहले ही कह दिया है कि अर्थ से पृथक् किसी की (बुद्धि की)प्रतीति अनुभवारूढ 15 नहीं है।
* 'अर्थ की बुद्धि'- इस प्रतीति से पृथक् बुद्धि का साधन * यदि कहा जाय – अर्थाकार से अतिरिक्त कोई ज्ञान तत्त्व यदि नहीं है, अन्तः स्पृश्य = अन्तः संवेद्यरूप से ज्ञान का ही सुखाकार या स्तम्भाकार प्रतिभास होता हो- तब फलितार्थ यह होगा कि
अन्तिम तत्त्व 'संवेदन' ही सिद्ध होगा, फिर प्रश्न यह ऊठेगा कि अगर संवेदन से अतिरिक्त कुछ 20 भी नहीं है तो 'नेत्रों से मुझे रूप दीखता है।' ऐसी अनुभवसिद्ध प्रतीति नहीं हो पायेगी क्योंकि संवेदनमात्र को बाह्य वस्तु के रूप या चक्षु आदि के साथ कोई सम्बन्ध तो घटता नहीं है, क्योंकि आप के मतानुसार संवेदन से अतिरिक्त कोई रूपादि है नहीं जो चक्षु से दीखाई दे। (अवांतर शंका) संवेदन में पहले नीलरूपादिआकार ‘प्रकाशता' धर्म नहीं था वह बाद में चक्षु से उत्पन्न हो गया ऐसा
मानेंगे। (उत्तर) ऐसा मानने की जरूर नहीं है, नीलादि पदार्थ तो पहले से साबूत है, इस लिये 25 चक्षु आदि की क्रिया से सिर्फ 'प्रकाशत्व' धर्म ही वहाँ उत्पन्न होता है जो कि पहले अविद्यमान था।
ऐसी स्थिति में अब ‘अर्थ का ज्ञान' ऐसा शब्दप्रयोग वास्तविक सिद्ध होगा क्योंकि नीलादिविषय में प्रकाशता की उत्पत्ति होने से सम्बन्ध भी जन्य-जनक भावस्वरूप घट सकेगा। न्यायदर्शनकार ने इसी लिये कहा है कि 'बुद्धि-उपलब्धि-ज्ञान एकार्थक हैं।' यहाँ बुद्धि एवं ज्ञान को 'उपलब्धि' कहने का तात्पर्य
ही यह है → ज्ञान या बुद्धि किसी (विषय) को उपलब्ध करती है। 30
* 'प्रकाशता' से अतिरिक्त नीलादि उपलब्धि का निषेध * तो यह भी गलत है। कारण, 'नीलादि तो पहले से ही अवस्थित थे, प्रकाशता बाद में नेत्रादि से उत्पन्न हुयी' ऐसा कहना अयुक्त है क्योंकि प्रकाशता की उत्पत्ति के पहले, अर्थात् प्रकाश के न
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