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________________ ४६० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ 15 तस्य सर्वज्ञता भवेत् ?।।१३।। ज्ञान-दर्शनयोरेकसंख्यात्वादप्येकत्वमित्याह(मूलम) केवलणाणमणंतं जहेव तह दंसणं पि पण्णत्तं । सागारग्गहणाहि य णियम परित्तं अणागारं ।।१४।। 5 अत्र तात्पर्यार्थ:- यद्येकत्वं ज्ञान-दर्शनयोर्न स्यात् ततोऽल्पविषयत्वाद् दर्शनमनन्तं न स्यादिति _ 'अणन्ते केवलणाणे अणते केवलदंसणे' ( ) इत्यागमविरोधः प्रसज्येत । दर्शनस्य हि ज्ञानाद् भेदे साकारग्रहणादनन्तविशेषवर्त्तिज्ञानादनाकारं = सामान्यमात्रावलम्बि केवलदर्शनं यतो नियमेनैकान्तेन परीतं = अल्पं भवतीति कुतो विषयभेदादन्तता ?। युगपदुपयोगद्वयवादी 'अनन्तं दर्शनं प्रज्ञप्तम्' इत्यस्यां प्रतिज्ञायां 'साकारग्गहणाहि य णियमऽपरित्तं' 10 इत्यकारप्रश्लेषात् साकारे = विशेषे गतं यत् सामान्यं तस्य यद् ग्रहणं = दर्शनं तस्य नियमो = देखा ? अंश मात्र । एवं एकोपयोग से वे जानते तो हैं लेकिन देखते कुछ भी नहीं तो उन्होंने जान जान कर क्या जाना ? - अंश मात्र। मतलब, ज्ञान के विना न तो कुछ देखा, दर्शन के बिना न तो कुछ जाना ? फिर केवली में सर्वज्ञता भी कैसे टीक पायेगी ? फलितार्थ :- इन आपत्तियों से बचने हेतु केवली के ज्ञान-दर्शन को एक ही स्वीकारना होगा ।।१३।। [भेद पक्ष में केवलदर्शन के आनन्त्य का लोप ] ज्ञान भी केवली में अनंत है एवं दर्शन भी अनन्त हैं – इस प्रकार दोनों में अनन्तसंख्याग्राहित्व समान होने से भी ज्ञान-दर्शन का अभेद मानना अनिवार्य है - यह सब १४ वीं कारिका से कहा जा रहा है - गाथार्थ :- जैसे (सूत्र में) केवल ज्ञान को अनन्त कहा है वैसे दर्शन को भी। अन्यथा साकार ग्रहण की अपेक्षा अनाकार उपयोग नियमतः अल्प सिद्ध होगा ।।१४।। 20 व्याख्यार्थ :- गाथा का तात्पर्य यह है कि ज्ञान-दर्शन उपयोगों को यदि अभिन्न नहीं कहेंगे तो विषय-अल्पता के कारण दर्शन की अनन्तता का विलोप होगा। अतः 'केवलज्ञान अनंत है केवलदर्शन अनन्त है' ऐसा कहनेवाले आगमसूत्र के साथ विरोध प्रसक्त होगा। दर्शन का विषय सामान्य है जैसे द्रव्यत्व अथवा द्रव्यसामान्य, किन्तु एक एक द्रव्यत्व-पृथ्वीत्वादि सामान्य के साथ संलग्न विशेष अनेक हैं जैसे कि पृथ्वीद्रव्य, जल द्रव्यादि एवं मिट्टी-पाषाणादि पृथ्वीद्रव्य । 25 इस से फलित होता है कि सभी सत्तादि सामान्य की संख्या के मुकालबे में तत्संलग्न विशेषों की संख्या कई गुणी यानी अनन्तगुणी हैं यह हकीकत है। यदि सामान्यग्राही दर्शन को ज्ञान से भिन्न मानेंगे तो दर्शन के ग्राह्य विषयों की संख्या ज्ञानग्राह्य अनन्त विशेषों की अपेक्षा अवश्यमेव अल्प अल्पतर या अल्पतम ही रह जायेगी। इस स्थिति में ज्ञान के समान दर्शन में आगमोक्त अनन्तता (अनन्तविषयता) कैसे संगत होगी ? [यौगपद्यवादी के मत में दर्शन में आनन्त्य की उपपत्ति ] ___ इस संदर्भ में समकालीन उपयोगद्वयवादी मूलगाथा के उत्तरार्ध की जिस तरह से व्याख्या करते .. 'अणंते णाणे केवलिस्स, अणंते दंसणे केवलिस्स... इत्यादि भगवतीसूत्रे ५-४-१८५। ॐ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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