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________________ खण्ड-४, गाथा-१४/१५, केवलद्वयभेदाभेदविमर्श ४६१ ऽवश्यंभावस्तेनाऽपरीतम् = अपरिमाणमिति 'साकारगतग्रहणनियमेनाऽपरीतत्वाद्' इति हेतुमभिधत्ते । यच्चापरीतं तदनन्तं यथा केवलज्ञानम् । अपरीतता च दर्शनस्य द्रव्य-गुण-कर्मादे: साकारस्य च सकलस्य द्रव्यत्वगुणत्व - कर्मत्वादिना स्वसामान्येन तावत्परिमाणेनाऽशून्यत्वात् सामान्यविकलस्य पर्यायस्याऽसंभवात् । विशेषतादात्म्यव्यवस्थितसामान्यस्य दर्शनविषयानन्त्येन दर्शनस्याऽपरीतत्वं नासिद्धमिति भवति तस्याऽनन्त्यसिद्धिरिति व्यवस्थितः । । १४ । क्रमवादिदर्शने ज्ञान-दर्शनयोरपर्यवसितत्वादिकं नोपपद्यत इति यत् प्रेरितमेकत्ववादिना, तत्परिहारार्थमाह( मूलम् ) भण्णइ जह चउणाणी जुज्जइ णियमा तहेव एयं पि । भण्णइ णं पंचणाणी जहेव अरहा तहेयं पि ।। १५ ।। Jain Educationa International यथा क्रमोपयोगवृत्तोऽपि मत्यादिचतुर्ज्ञानी अपर्यवसितचतुर्ज्ञान उत्पद्यमानतज्ज्ञानसर्वदोपलब्धिको व्यक्तबोधो हैं उस का दिग्दर्शन व्याख्याकार कराते हैं ' दर्शन अनन्त कहा गया है' यह प्रतिज्ञा समझो। 'साकार 10 गत ग्रहण का नियम से अपरीतत्व' यह हेतु है । ऐसा हेतु मूल गाथा के 'णियमS ( अ ) परीत्तं ' इस पद में अकार (अवग्रह ) का प्रक्षेप करने से प्राप्त है। हेतु की व्याख्या साकार यानी विशेष, साकार में गत यानी साकार सें संश्लिष्ट, यानी सामान्य । उस का ग्रहण यानी दर्शन, उस का नियम यानी अवश्यंभाव, उस की वजह से अपरीत यानी अपरिमित ( होने से ) । तात्पर्य यह है कि दर्शन का विषय सामान्य अवश्यमेव अनन्त विशेषों संश्लिष्ट होता है अत एव वह अपरिमित यानी अनन्त 15 है। इसलिये दर्शन अनन्त कहा गया है यह निगमन हुआ । दृष्टान्त है केवलज्ञान, जो अपरीत होता है वह अनन्त होता है से यह व्याप्ति उस में सुगृहीत है। दर्शन की अपरीतता इस प्रकार है साकार यानी विशेषात्मक जितने भी द्रव्य-गुण-कर्मादि है वे सभी द्रव्यत्व - गुणत्व - कर्मत्वादि स्वनिष्ठ सामान्य से संश्लिष्ट होने के कारण सामान्य भी उतनी ही ( जितनी विशषों की संख्या है) संख्या से व्याप्त हैं, क्योंकि सामान्यरहित पर्यायों (विशेषों) का स्वतन्त्र 20 अस्तित्व नहीं है । विशेषों से तादात्म्य रखनेवाले सामान्यरूप दर्शनविषयों की अनन्त संख्या अक्षुण्ण होने से दर्शन की अपरीतता असिद्ध नहीं है । इस प्रकार दर्शन के आनन्त्य की सिद्धि होती है। और हेतु सुनिश्चित हुआ । । १४ । । इस प्रकार समकाल उपयोग द्वयवादीने दो उपयोग मानने पर भी दर्शन में अनन्तता की संगति कर के दीखायी। तो क्रमोपयोगवादी भी एकोपयोगवादी को या समकालतावादी को कहता है कि आपने 25 जो 'क्रमवादी के मत में ज्ञान दर्शन की अपर्यवसितता घटती नहीं' ऐसा आरोप किया है उस का परिहार सुन लो (मूल १५वीं गाथा से दिखाते हैं) [ क्रमवादपक्ष में शक्तितः अपर्यवसितत्वादि की संगति ] गाथार्थ :- ( क्रमवादी :-) जैसे चतुर्ज्ञानी संगतिमान् वैसे यह भी नियमा (घटता है ) | ( अभेदवादी :-) जैसे अरिहंत पंचज्ञानी नहीं है वैसे यह भी ( दो उपयोग नहीं होते ) । । १५ ।। व्याख्यार्थ :- क्रमवादी कहता है से नहीं होते फिर भी छद्मस्थ पुरुष में जैसे मति आदि चार ज्ञान छद्मस्थ में एक साथ व्यक्तिरूप शक्ति अक्षुण्ण होने से वह अपर्यवसित चतुर्ज्ञानी कहा जाता - - ― - For Personal and Private Use Only - - 5 - 30 www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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