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________________ 10 खण्ड-४, गाथा-१२/१३, केवलद्वयभेदाभेदविमर्श ४५९ __ अदृष्टमेव ज्ञातं जात्यन्धहस्तिपरिज्ञानवत् अज्ञातमेव च दृष्टमलातचक्रदर्शनवत् सर्वकालमेव केवली भाषते इत्येतदापनमक्रमोपयोगपक्षे। क्रमवलुपयोगपक्षे तु एकस्मिन् समये जानाति यत् तदेव भाषते ज्ञातं न च दृष्टम् समयान्तरे तु यदा पश्यति तदापि दृष्टं भाषते न ज्ञातम् बोधानुरूप्येण वाचः प्रवर्तनात् । बोधस्य चैकांशावलम्बित्वादक्रमोपयोगपक्षे, क्रमोपयोगपक्षे तु तत्त्वाद् भिन्नसमयत्वाच्च । तत एकस्मिन् समये ज्ञातं दृष्टं च भाषत इत्येष वचनविशेषो भवदर्शने न सम्भवतीति गृह्यताम् ।।१२।। तथा च सर्वज्ञत्वं न सम्भवतीत्याह(मूलम्) अण्णायं पासंतो अद्दिटुं च अरहा वियाणंतो। किं जाणइ किं पासइ कह सव्वण्णु त्ति वा होइ ।।१३।। अज्ञातं पश्यन्नदृष्टं च जानानः किं जानाति किं वा पश्यति न किञ्चिदपीति भावः। कथं वा में (तथाविध) वचन विशेष का कोई सम्भव नहीं रहता ।।१२।। __व्याख्यार्थ :- केवली भगवंत जिन वस्तुतत्त्वों का निरूपण करते हैं वे यदि जात्यन्धहस्तीज्ञान की तरह ज्ञात है तो भी दृष्ट नहीं है और अलातचक्रदर्शन की तरह दृष्ट हैं तो भी ज्ञात नहीं है। अक्रमिक पृथक् पृथक् उपयोगद्वय वादी के पक्ष में ऐसी असंगति प्रसक्त है। कारण, ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग भिन्न हैं अतः केवली भगवंत जब बोलते हैं उस काल में यदि ज्ञानोपयोग से ज्ञात वस्तु का तो प्रतिपादन करेंगे, किन्तु उस काल में दर्शनोपयोग होने पर भी वह ज्ञात वस्तु ज्ञानोपयोग 15 से दृष्ट नहीं है। इसी प्रकार दर्शनोपयोग से दृष्ट वस्तु का निरूपण करेंगे उस काल में ज्ञानोपयोग के होने पर भी वह दृष्ट वस्तु दर्शनोपययोग से ज्ञात नहीं है। क्रमिक उपयोगद्वयवादी के मत में भी यही दुविधा आयेगी - जिस समय में केवली ज्ञानोपयोग से जानते हैं उस काल में वे ज्ञात किन्तु अदृष्ट वस्तु का ही निरूपण करेंगे क्योंकि उस काल में दर्शनोपयोग होता नहीं। जब दूसरे समय में दर्शनोपयोग आविर्भूत हुआ उस समय केवली उस से 20 दृष्ट किन्तु अज्ञात वस्तु का ही निवेदन कर पायेंगे क्योंकि उस काल में ज्ञानोपयोग नहीं है। उसका भी कारण यह है कि वाणी की प्रवृत्ति तो बोध (उपयोग) के मुताबिक ही हो सकती है। अक्रमिक उपयोगद्वय पक्ष में बोध (अन्यतर उपयोग) एकतर अंशावलम्बि ही होता है न कि उभयांशग्राहि। तथा क्रमोपयोगद्वय पक्ष में भी उपयोग की क्रमिकता के कारण समय का भेद होने से नतीजा यही आयेगा कि 'किवली भगवंत एक ही समय में ज्ञात एवं दृष्ट वस्तुतत्त्व का ही निरूपण करते हैं ऐसा वचनविकल्प 25 यानी ऐसा तथ्यनिरूपण सम्भवित नहीं हो सकता। इतना समझ के रखो।।१२।। अत एव इस स्थिति में सर्वज्ञता भी संभवित नहीं यह दिखाते हुए प्रकरणकार कहते हैं - [भेदपक्ष में केवली में असर्वज्ञता की प्रसक्ति ] गाथार्थ :- अरिहंत केवली यदि अज्ञात को देखते हैं और अदृष्ट को जानते हैं, उन्होंने जाना क्या ? क्या देखा ? वह सर्वज्ञ कैसे ?।।१३।। 30 व्याख्यार्थ :- मूल गाथा में किं-शब्द क्षेप में प्रयुक्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि यदि केवली भगवंत एक उपयोग से देखते तो हैं लेकिन जानते कुछ भी नहीं तो उन्होंने देख देख कर क्या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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