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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ ___ ज्ञानस्य हि व्यक्तता रूपं दर्शनस्य पुनरव्यक्तता। न च क्षीणावरणे अर्हते व्यक्तताऽव्यक्तते युज्यते । ततः सामान्यविशेषज्ञेयसंस्पर्शी उभयैकस्वभाव एवायं केवलिप्रत्ययः। न च ग्राह्यद्वित्वाद् ग्राहकद्वित्वमिति तत्र संभावना युक्ता, केवलज्ञानस्य ग्राह्यानन्त्येनानन्ततापत्तेः। अन्योन्यानुविद्धग्राह्यांशद्वयभेदाद् ग्राहकस्य तथात्वकल्पने एकत्वानतिक्रमान्न दोष इति। सूरेरयमभिप्राय:- न चैकस्वभावस्य प्रत्ययस्य शीतोष्णस्पर्शवत् परस्परविभिन्नस्वभावद्वयविरोधो, दर्शनस्पर्शनशक्तिद्वयात्मकैकदेवदत्तवत् स्वभावद्वयात्मकैकप्रत्ययस्य केवलिन्यविरोधात्, अनेकान्तवादस्य प्रमाणोपपन्नत्वात् ।।११।। क्रमाक्रमोपयोगद्वयाभ्युपगमे तु भगवतः इदमापन्नमिति दर्शयति(मूलम्) अद्दिटुं अण्णायं च केवली एव भासइ सया वि। एगसमयम्मि हंदी वयणवियप्पो न संभवइ ।।१२।। 10 क्षीण हो जाने पर सुव्यक्त-अव्यक्त भेद उचित नहीं है।।११।। व्याख्यार्थ :- ज्ञान का स्वरूप है व्यक्तता यानी प्राकट्य । दर्शन का स्वरूप है अव्यक्तता यानी तिरोहितभाव । अर्हत् केवली भगवंत में ज्ञानावरण-दर्शनावरण दोनों एक साथ क्षीण हो जाने पर प्राकट्य एवं तिरोहितभाव परस्परविरुद्ध होने से न्यायसंगत नहीं हो सकते। अतः सिद्ध होता है कि केवलिभगवंत की प्रतीति सामान्य-विशेषोभय ज्ञेयपदार्थग्राही होने से उभयपदार्थ ग्राहक एकस्वभावमय ही है। यानी एक 15 ही उपयोग उभय का ग्राहक है। ऐसी संभावना करना अनुचित है कि ग्राह्य पदार्थ (सा०वि०) दो होने से उन के ग्राहक उपयोग भी दो भिन्न होना चाहिये। कारण, जैसे सामान्य एवं विशेष दो ग्राह्य हैं ऐसे तो लोकत्रय, चतुर्गति, पंचविध इन्द्रिय आदि क्रम से ग्राह्य पदार्थ अनन्त होने के कारण केवलीभगवंत में अनन्त उपयोग स्वीकारने का संकट खडा होगा। हाँ, यदि एक ही उपयोग में, परस्पर संश्लिष्ट सा०वि० रूप ज्ञेयांशों के अनेक (दो) होने से उन के ग्राहक एक उपयोग में परस्पर अनुविद्ध अनेक अंशों की 20 कल्पना की जाय तो कोई हानि नहीं है क्योंकि यहाँ अनेकांशगर्भित उपयोग का एकत्व खंडित नहीं होता। [एक उपयोग की साकारनिराकारोभयग्राहकता अविरुद्ध ] यहाँ दिवाकरसूरि के अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिये व्याख्याकार अभयदेवसूरि कहते हैं - उपयोगत्वेन एकस्वभावयुक्त प्रतीति में परस्परभिन्न साकार-अनाकार पदार्थद्वयग्राहक उभयस्वभावता मानने में शीतोष्णस्पर्शद्वयवत् विरोध को अवकाश नहीं है। शीतोष्ण स्पर्शद्वय एक-दूसरे के नाशक होने से 25 उन में विरोध सावकाश है, किन्तु साकारग्राहकता एवं अनाकारग्राहकता एक दूसरे के नाशक नहीं है किन्तु उपष्टम्भक हैं अतः उन का विरोध नहीं है। जैसे द्रव्यतः एक ही देवदत्त पुरुष में दर्शनशक्तिस्पर्शनशक्ति परस्पर अविरुद्ध होती है, एकसाथ रहती है, इसी तरह केवली की एक प्रतीति में सामान्य ग्राहकता - वि०ग्राहकता स्वभावद्वययुक्तता होने में विरोध नहीं हो सकता। कारण, एक में अनेकता स्वीकारनेवाला अनेकान्तवाद अनेक प्रमाणों की कसोटी में उत्तीर्ण सिद्ध हुआ है।।११।। 30 क्रमाक्रमोपयोगद्वयपक्ष में, केवली प्रभु पर कैसा दोषारोप है यह दिखाते हैं - [भेदपक्ष में अदृष्ट/अज्ञात का भाषण दोषरूप ] गाथार्थ :- केवली हर हमेश अदृष्ट एवं अज्ञात के बारे में बोलते हैं, अरे रे ! एक समय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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