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खण्ड-४, गाथा-५, केवलद्वयभेदाभेदविमर्श अभूत एव बिन्दुरबानीतः यथा यत्कृतसुकृते ‘जंकयसुकयं' ( ) इति लोकप्रयोगे।।४।।
[ अनुमानेन यौगपद्यस्थापनम् ] (मूलम) केवलणाणावरणक्खयजायं केवलं जहा णाणं ।।
तह दंसणं पि जुज्जइ णियआवरणक्खयस्संते।।५।। (व्याख्या :-) केवलज्ञानावरणक्षये यथोत्पन्नं विशेषावबोधस्वभावं ज्ञानं तथा तदैव दर्शनावरणक्षये 5 सति सामान्यपरिच्छेदस्वभावं दर्शनमप्युत्पद्यताम्। न ह्यविकलकारणे सति कार्यानुत्पत्तियुक्ता, तस्याऽतत्कार्यताप्रसक्ते. इतरत्राप्यविशेषतोऽनुत्पत्तिप्रसक्तेश्च । ज्ञानकाले दर्शनस्यापि संभवः तदुत्पत्तौ कारणसद्भावाद् युगपदुत्पत्त्यविकलकारणघटपटयुगपदुत्पत्तिवत् । ननु च हेतौ सत्यपि श्रुताद्यावरणक्षयोपशमे श्रुताद्यनुत्पद्यमानमपि कदाचित् दृष्टमित्यनैकान्तिको हेतुः। न, श्रुतादी क्षीणावरणत्वस्य हेतोरभावात् श्रुतादेः क्षीणोपशान्तावरणत्वात्। दोनों प्रयुक्त होते हैं। फिर भी उसी अर्थ का ग्रहण होता है जो (उन दोनों के न होते हुए भी) 10 पहले निर्दिष्ट किया गया रहता है।"
यहाँ भी 'जं समयं' शब्दान्तर्गत न होनेवाले भी बिन्दु (अम्) का प्रयोग है जैसे कि लौकिक भाषाप्रयोग में 'यत्कृतसुकृत' शब्द के लिये बिन्दुसहित 'जंकयसुकयं' ऐसा प्रयोग किया जाता है।।४।।
[केवल ज्ञान-दर्शन की समकालीनता का अनुमान ] आगम की साक्षि से केवलज्ञान-केवलदर्शन की समकालीनता का प्रतिपादन कर के अब दिवाकरसूरिजी 15 पाँचवी गाथा से अनुमान के द्वारा उसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं -
गाथार्थ :- जैसे ज्ञान केवलज्ञानावरण के क्षय से प्रकट होता है वैसे ही अपने (केवलदर्शन के) आवरण का क्षय होने पर केवल दर्शन का उद्भव भी घटता है।।५।।
व्याख्यार्थ :- केवलज्ञानावरण का क्षय होने पर जैसे विशेषावबोधस्वभावी ज्ञान उत्पन्न होता है वैसे उसी काल में दर्शनावरण का क्षय होने पर सामान्यअवबोधस्वभावी दर्शन भी उत्पन्न हो सकता 20 है। परिपूर्ण कारणों की उपस्थिति रहने पर कार्य उत्पन्न न हो ऐसा हो नहीं सकता। ऐसा होगा तो उस कार्य में तत्कारणजन्यता का भंग होगा।
यदि कहा जाय – 'तत्कारणजन्यता के भंग का आपादन अनुचित है, क्योंकि श्रुतादिज्ञान के हेतुभूत श्रुतादिआवरण का क्षयोपशम सदैव विद्यमान रहने पर भी कदाचित् श्रुतादि ज्ञान का अनुभव दिखता है। फलतः, परिपूर्णकारण की विद्यमानता में कार्य की अनुत्पत्ति रूप हेतु तत्कारणजन्यताभंग की सिद्धि 25 में अनैकान्तिक है।' – तो यह ठीक नहीं है क्योंकि क्षयोपशम नहीं किन्तु क्षय ही परिपूर्ण कारण के रूप में उक्त व्याप्ति में विवक्षित है, छद्मस्थ अवस्था में श्रुतज्ञान के प्रति श्रुतावरण क्षय कारणभूत ही
हीं है अतः कारण के न होने से श्रतादि की उत्पत्ति नहीं होती है - इस तरह व्याप्ति में कोई अनैकान्तिकता प्रसरण नहीं है। श्रुतादि का हेतु श्रुतादिआवरण का क्षयोपशम ही है और उस के रहते हुए श्रुतादि का उद्भव होता ही है। केवली में एक साथ ज्ञान-दर्शन उभय की सत्ता मानने वाले पक्ष में ज्ञान-दर्शन में 30 A. 'यदविकलकारणं तद् भवत्येव यथाऽऽदित्यप्रकाशसमये तदविनाभावी प्रतापः। अविकलकारणं च ज्ञानोत्पत्तिकाले दर्शनमिति प्रयोगः। बृ.टी.। (भूतपूर्वावृत्तिमध्ये टीप्पणम्)
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