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________________ 5 10 ४५२ भिन्नावरणत्वादेव च श्रुतावधिवद् नैकत्वमेकान्ततो ज्ञान-दर्शनयोरेकदोभयाभ्युपगमवादेनैव । । ५ । । यज्जातीये यो दृष्टः तज्जातीय एवासावन्यत्राप्यभ्युपगमार्हो न जात्यन्तरे, धूमवत् पावकेतरभावाभावयोः, अन्यथानुमानादिव्यवहारविलोपप्रसङ्गात् इत्याह सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २ (मूलम्) भइ खीणावरणे जह मइणाणं जिणे ण संभवइ । तह खीणावरणीज्जे विसेसओ दंसणं नत्थि ।। ६ ।। व्याख्या :- यथा क्षीणावरणे सति मति श्रुतावधि - मनः पर्यायज्ञानानि जिने न संभवन्तीत्यभ्युपगम्यते तथा तत्रैव क्षीणावरणीये विश्लेषतो ज्ञानोपयोगादन्यदा दर्शनं न संभवतीत्यभ्युपगन्तव्यम्, क्रमोपयोगस्य मत्याद्यात्मकत्वात् तदभावे तदभावात् ।।६।। न केवलं क्रमवादिनोऽनुमानविरोधः, आगमविरोधोपीत्याह - (मूलम् ) सुत्तम्मि चेव साई अपज्जवसियं ति केवलं वृत्तं । सुत्तासायणभीरूहि तं च दट्ठव्वयं होइ ।। ७ ।। Jain Educationa International एकत्व की आपत्ति भी निरवकाश हैं, क्योंकि ज्ञान और दर्शन दोनों के आवरण भिन्न भिन्न है। यदि वे दोनों एक होते तो उन का आवरण भी एक ही होता यतः आवरण भिन्न हैं अत एव उन दोनों में एकान्त से एकत्व नहीं है । ( एकत्व का निरसन यहाँ आपाततः समझना ) । । ५ । । 15 छट्ठी गाथा में सूत्रकार यह दिखा रहे हैं कि धूम जब भी दिखता है अग्निजातीय की हाजरी में ही, अत एव अग्निजातीय के होने पर ही धूम का अस्तित्व माना जा सकता है न कि अन्य (जल) जातीय के होने पर । अग्निजातीय के विना धूम के अस्तित्व का स्वीकार नहीं हो सकता । इस से यह नियम फलित होता है कि जो जिस जातिवाले के रहने पर ही दिखता है वह उस जातिवाले के होने पर ही वहाँ माना जा सकता है। अन्यथा इस व्याप्ति के इनकार में अनुमानादि 20 व्यवहार का लोप प्रसक्त होगा सूत्रकार अब यही कहते हैं छुट्टी कारिका में गाथार्थ :- (जैसे यह ) कहा जाता है कि जिन प्रभु में आवरणक्षय होने पर भी मतिज्ञान का उद्भव नहीं होता - तथैव आवरणक्षय होने पर भी विश्लेष से ( पृथक् रूप से ) दर्शन भी नहीं होता । । ६ । । व्याख्यार्थ :- जैसे आवरणक्षय होने पर भी जिन में मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्याय ज्ञानों का असंभव मान्य है वैसे ही जिन में आवरण क्षीण होने पर भी ज्ञानोपयोग से भिन्नकाल में दर्शन 25 का भी पृथक्रूप से असंभव मान्य कर लेना जरूरी है। क्रमिक उपयोग की अवस्था में ही मति आदि होते हैं (एवं पृथक् दर्शन भी ) यानी क्रमोपयोग मति आदि रूप ही होता है, अतः मति आदि के विरह में केवली में क्रमोपयोग नहीं हो सकता । । ६ ।। [ क्रमवाद में आगमविरोध का उपदर्शन ] क्रमिकवादी के मत में सिर्फ अनुमानविरोध ही नहीं आगमविरोध भी है, सातवीं गाथा में यह 30 कहा गया है गाथार्थ : सूत्र में केवल (ज्ञान-दर्शन) को सादि एवं अनन्त कहा है। सूत्र की आशातना - - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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